आत्मकथा और जीवनी भी साहित्य की विधा के रूप में स्वीकृत हैं.
आत्मकथा, स्वयं लेखक द्वारा अपने जीवन का संबद्ध वर्णन है. प्राय: दो उद्देश्यों को लेकर आत्मकथा लिखी जाती है:
1. आत्मनिर्माण या आत्म-परीक्षण
2. दुनिया और समाज के जटिल परिवेश में अपने आपको जानने-समझने की इच्छा.
आत्मकथा लेखक बहुत बड़ा गुण उसकी ईमानदारी है. चूंकि लेखक स्वयं अपनी जीवनी लिखता है इसलिए उसमें आत्मग्रस्त होने की गुंजाइश होती है. आत्ममोह से बच सकने वाले आत्मकथा लेखक में एक दूसरा महत्त्वपूर्ण गुण भी उत्पन्न हो जाता है. वह गुण है अपने युग के जीवन और समाज का प्रामाणिक दस्तावेज़ प्रस्तुत करना. इससे बहुत बड़ा अंतर नहीं पड़ता कि लेखक अपने युग का महान् नायक है या साधारण आदमी. ईमानदार होने पर उसके जीवन की घटनायें सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक और धार्मिक पहलुओं से जुड़ी हुई लगेंगी. उस वास्तविक प्रसंग में वह अपने को जाँच सकेगा. इसी कारण सामान्य पाठक भी किसी की आत्मकथा को रूचिकर और उपयोगी मानकर पढ़ता है.
राजेन्द्र प्रसाद (आत्मकथा), राहुल सांकृत्यायन (मेरी जीवन यात्रा), यशपाल (सिंहावलोकन) और बच्चन (क्या भूलूँ क्या याद करूँ) प्रमुख आत्मकथा लेखक हैं.
किसी व्यक्ति विशेष के जीवन को विषय बनाकर जब कोई अन्य व्यक्ति लिखता है तो उसे जीवनी कहते हैं. जीवनी लेखक के भी प्रधान गुण आत्मकथा लेखक के ही होते हैं. जीवनीकार अपने रचित नायक के जीवन की घटनाओं और तथ्यों को वस्तुगत आधार पर विश्लेषणात्मक पद्धति और मार्मिक शैली में प्रस्तुत करता है. तथ्य की वस्तुगतता और संवेदन की मार्मिकता, दोनों के मनोरम सामंजस्य से जीवनी, इतिहास से अलग, साहित्य की चीज़ बन जाती है. जीवनी में रचित नायक के प्राय: समग्र जीवन का वर्णन किया जाता है. किन्तु यह नितांत अनिवार्य नहीं है. सम्पूर्ण की अपेक्षा अधिकांश जीवन को विषय बना कर भी जीवनी लिखी जाती है.
अमृतराय ने प्रेमचंद की जीवनी ‘कलम का सिपाही’ नाम से और डा. रामविलास शर्मा ने ‘निराला की साहित्य-साधना’ नाम से निराला की जीवनी लिखी है. ये दोनों जीवनियाँ बहुत प्रसिद्ध हैं. विष्णु प्रभाकर की ‘आवारा मसीहा’ जो शरतचंद की जीवनी है, वह भी महत्त्वपूर्ण है.
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