*** काव्य-निर्णय में सहृदय की भूमिका


रस-विमर्श और रस-प्रक्रिया में साधारणीकरण, संभवतः केन्द्रीय महत्त्व की अवधारणा है, जबकि साधारणीकरण की चर्चा बहुधा नाट्य पर आधारित ही मिलती है. हालाँकि रस को (श्रव्य) काव्य से भी सम्बन्धित मान लिया गया है. फिर भी, इस चर्चा में कतिपय प्रसंग ऐसे आ जाते हैं जिनकी अनिवार्यता प्रश्नास्पद है और कतिपय पक्ष अनालोचित से रह जाते हैं. यद्यपि भारतीय काव्यशास्त्र की एक धारा ने, जिसे आज मुख्य धारा कहा जाता है/ कहा जा सकता है, काव्य की आत्मा को रस बताया है. नाट्य या काव्य के प्रेक्षण अथवा श्रवण से रस साधारणीकृत होकर सहृदय सामाजिक को अनुभूत होता है. रस क्या है? रसास्वाद की प्रक्रिया क्या है? इत्यादि प्रश्नों पर पर्याप्त चर्चा हुई है. यहाँ दो अन्य पक्ष महत्त्वपूर्ण रूप से आलोच्य है - आत्मा, जो कि काव्य के पक्ष में रस है, और सहृदय सामाजिक। भारतीय चिंतन दुरूह की परम्परा में इनकी निष्पक्ष पहचान करना आसान प्रतीत नहीं होता. इसकी अपनी जटिलता है.

भारतीय चिंतन परम्परा में चार्वाकेतर सभी दार्शनिक परम्पराओं ने आत्मतत्व को पर्याप्त महत्त्वपूर्ण माना है. फिर भी, महत्त्व के स्तर एवं गंभीरता में पर्याप्त भेद है. इस लिहाज से भारतीय दार्शनिक चिन्तन धारा को दो मुख्य खेमों में बाँटकर देखा जा सकता है. अर्थात् आत्मतत्व के संज्ञान के प्रति भारतीय धारा ने स्पष्टतः दो दृष्टि अपनाई है, जिन्हें वस्तुवादी एवं ज्ञानवादी कहा जाता है / जा सकता है. वस्तुवादी दृष्टि का प्रतिनिधि सिद्धांत न्याय दर्शन है, जिसे प्रत्येक अवधारणा का लक्षण परिस्पष्ट रूप से, अन्वय और व्यतिरेक विधि से, बता देना आवश्यक लगता है. ज्ञानवादी दृष्टि का प्रतिनिधि सिद्धांत (अद्वैत) वेदान्त दर्शन है, जिसे किसी स्थिति को अवधारणा कहने समझने के बजाए जिज्ञासा का, विमर्श का विषय समझना-कहना ही अभिप्रेत है. इस असम्बद्ध प्रतीत होने वाले दार्शनिक क्षेत्र में प्रविष्ट होने का अभिप्राय यह जानना है कि किस प्रकार इन चिंतन दृष्टियों ने अन्य क्षेत्रों पर अपना सैद्धांतिक वर्चस्व कायम किया है. वस्तुवादी दृष्टि को सामाजिकों (साधारण मनुष्यों) पर किंचित् भी भरोसा नहीं है. जो कुछ भी कहना, समझना होगा - सम्प्रदायविद् ही समझाऐंगे. संक्षेप में, यह नज़रिया जनता को जड़ मानता है. जबकि ज्ञानवादी नज़रिया प्रत्येक व्यक्ति में, सैद्धांतिक रूप से, चिंतन की सम्भावना और जिज्ञासा करने योग्य क्षमता के प्रति विश्वास व्यक्त करता है. चिंतन में उपस्थित द्वैध का यह प्रारंभिक कारण है.

*** 'दिनकर' की काव्यगत विशेषता

रामधारी सिंह 'दिनकर' का जन्म 23 सितंबर 1908 में बिहार के बेगूसराय जिला के सिमरिया घाट गांव में हुआ था। आर्थिक तंगी के कारण इनका बचपन संघर्ष में ही बीता,‌ फिर बाद में राष्ट्रीय भाव धारा से प्रमुखता से जुड़ने के कारण उनका जीवन अस्थिर ही रहा। इन सब के बावजूद भी कवि अपनी रचनाओं की जीवंतता को सदैव बनाए रहे। इनके काव्यो में एकरूपता के बजाय अनेक रंग रूप और विशेषता देखने को मिलता है जो इस प्रकार है-

1). राष्ट्रीय भाव धारा के प्रमुख कवि

रामधारी सिंह की कविताओं में राष्ट्रीयता कूट-कूट कर भरी भरी है। उनकी कविताओं को पढ़कर सहज मानव के हृदय में भी राष्ट्र के लिए कुछ कर लुटाने का भाव उमड़ पड़ता है और पराधीन भारत के कवि होने के नाते यह स्वाभाविक भी था। उस दौर के लगभग सभी कवियों या कवयित्रियों की रचनाओं में राष्ट्रीयता प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से विद्यमान है किंतु इन सभी रचनाकारों से दिनकर इस मामले में थोड़े भिन्न है। एक तरफ जहां राष्ट्रवाद बड़ी संयम के साथ मैथिलीशरण गुप्त, रामनरेश त्रिपाठी आदि की रचनाओं में आता था तो वहीं दूसरी ओर थोड़े और क्रांति के साथ माखनलाल चतुर्वेदी, बालकृष्ण शर्मा, सुभद्रा कुमारी चौहान आदि की कविताओं में विकल्प के साथ या गुंजाइश के साथ परिलक्षित होता था।किंतु इन सब के इतर दिनकर की कविताएँ हर सीमा रेखा को लांघ कर पाठक में हृदय में चिंगारी पैदा कर देता था। वह अक्सर विकल्प विहीन दिखती हैं। उदाहरण के लिए-

पूछेगा बूढ़ा विधाता तो मैं कहूँगा, 

हाँ तुम्हारी सृष्टि को हमने मिटाया।

यहाँ कवि सृष्टि को ही मिटा देने की बात करता है क्योंकि उसे यह सृष्टि शोषण से युक्त नजर आती है।

*** मीरा का काव्य और ‘स्त्रीत्व’ का निर्माण


मीराबाई जैसी मध्ययुगीन कवयित्री को स्त्री सन्दर्भों में पढ़ना चुनौती भरा काम है। मीरा के सन्दर्भ में अक्सर यह देखा गया है कि उनके व्यक्तिगत जीवन और भक्ति सन्दर्भों को लेकर प्राय: हिन्दी आलोचना का रवैया ‘नारी गौरवान्वयन’ कर पुरुष सन्दर्भों के लिये स्थान सुरक्षित रख करके स्त्री को देवी जैसे शब्दों के मायालोक में कैद कर देता है। मीरा को स्त्री सन्दर्भों में पढ़ने से प्रथमतया स्त्री के परम्परागत तर्क के सारे अभियान उथले और झूठे साबित हो जाते हैं और हिन्दी आलोचना की वह प्रवृत्ति भी छल पूर्ण दिखाई देने लगती है जो तीर को गलत निशाने पर बहुत सोच समझ कर लगाती है। यह आलोचना रचनाकार के उन प्रसंगों को राजी से नहीं तो ज़बरदस्ती उभार देती है जो गौण महत्व रखते हैं। मीरा के बारे में भी इन आलोचकों का रवैया सहानुभूतिपूर्ण होते हुए भी तमाम पूर्वग्रहों से भरा होकर ऐसी बातों में मीरा की महानता और देवीत्व दिखाने की कोशिश करता है जिनसे कि अधिक से अधिक एक व्यक्तिगत कहानी भर ही उभर पाती है। हालांकि यह भी कम महत्वपूर्ण नहीं होता कि एक पूरी और साफ कहानी उभर आये, पर ठीक से यह भी नहीं सध पाता और मीरा विधवा या सधवा थी, राणा उसका पति था या देवर था में ही सारी बहस उलझ कर रह जाती है। मीरा के सन्दर्भ में स्त्री प्रश्नों को उठाना इसलिये भी चुनौतीपूर्ण है कि ऐसा करने से ‘भक्त’ के ‘स्त्री’ में बदलने का पूरा उपक्रम खड़ा हो जायेगा, जिससे धार्मिक ढाँचे के खतरे में पड़ने की सम्भावना बढ़ जाती है। धार्मिक छाया का यह दवाब शायद ही कभी हिन्दी आलोचना का पीछा छोड़ पाया है।

*** रामविलास शर्मा की आलोचना और स्त्री संदर्भ


ज बाज़ारवाद पर जो लोग अच्छी चर्चा कर रहे हैं वे स्त्रीवादी विमर्श के लोग हैं. बाजार का सबसे बड़ा असर व्यक्तिगत  और पारिवारिक जीवन पर पड़ा है. इसने व्यक्तिगत भावनाओंधार्मिक आस्थाओं और परम्परागत समाज के स्त्रियोचित-पुरुषोचित व्यवहार को लाभ के लिए भुनाया है. औरत की देह के सवाल को नग्नतावासनाउत्पाद से जोड़ा है और यह सब बाजार की लाभ नीतियों के तहत बड़ी कुशलता से किया गया है. मिडिल क्लास जो दैनंदिन दिनचर्या और रूचियों तक सीमित है वस्तुतः उपभोक्तावादी है. उसके लिए सभी प्रश्न इच्छा-अनिच्छा के प्रश्न हैं. सामाजिकआर्थिकराजनीतिक रूप में वे गौण हैं. वामपंथ ने बाजार के खतरों और नीतियों को पहले-पहले भांपा लेकिन मजदूर से किसान के संघर्ष तक ही अपनी पहुँच बना सके. नामवर सिंह ने एक साक्षात्कार में कहा था -‘‘हमलोगों ने स्त्रियों पर होनेवाले अत्याचारों पर उतना ध्यान नहीं दिया जितना देना चाहिए था.’’ (स्वाधीनतापत्रिकाशारदीय विशेषांक, 2000, पृ0 - 28) यह एक ऐसी कमजोरी थीजिसे यूरोपियन देशों और खासतौर से अमेरिका के वामपंथी दलों ने सबसे पहले पकड़ा.

*** 'जूही की कली' : युवा पाठ

"निराला" पुस्तक की भूमिका (द्वितीय संस्करण) में डॉ० रामविलास शर्मा लिखते है कि तब से लेकर अब तक देश और साहित्य में अनेक परिवर्तन हो चुके हैं। भारत अब उपनिवेश न रहकर अर्द्ध-उपनिवेश हो गया है। परंतु यह जर्जर सामंती ढांचा अब भी है। जिससे निराला साहित्य का घनिष्ट संबंध अब भी है

रामविलास जी इसके पहले संस्करण की भूमिका में लिखते हैं कि उनका व्यक्तित्व एक अच्छे खासे हीरो का सा है। उनमे काफी वैचित्र्य एवं नाटकीयता है फिर भी उनके जीवन के एक संक्षिप्त अध्ययन से हमारे सामाजिक संगठन की असंगतियाँ, उसकी रूढ़िप्रियता और उसका खोखलापन बहुत कुछ समझ में आ जायेगा । छायावाद के प्रवर्तकों में उनका अन्यतम स्थान है । जो पुराने साहित्य के प्रवर्तक या समर्थक थे और एक पिटी हुई लीक को छोड़कर साहित्य में नए प्रयोग करना प्राचीनता का अपमान समझते थे । इसी विरोध को निराला ने अपना केंद्र बनाया साथ ही साथ छायावाद में भी जो असंगतियाँ थीं जिससे उनका मार्ग अवरुद्ध हो गया था  । वैसी रचनाओं से मुँह मोड़कर निराला समाज के यथार्थ जीवन की ओर झुके और साहित्य में एक नई प्रगतिशील धारा के अगुआ बन। वह दो युगों के प्रतिनिधि साहित्यकार हैं और जीवन के विषम परिस्थितियों में भी उन्होंने साहित्य की साधना की है। 

रामविलास जी की यह भूमिकाएँ अक्षरसः  उनके साहित्य के महत्व को सपष्ट रूप से व्यक्त करता है।

'जूही की कली' निराला की प्रथम रचना मानी जाती है।

         "विजन-वन वल्लरी पर
          सोती थी सुहागभरी - 
          स्नेह-स्वप्न-मग्न अमल-कोमल-तनु-तरुणी
          जूही की कली"

निराला जहाँ एक ओर स्वाधीनता और सामाजिक परिवर्तन के पक्ष में क्रांतिकारी चेतना को प्रेरित कर रहे थे, वहीँ दूसरी ओर जातीय भाषा और राष्ट्रवाद, साथ-साथ वह हिंदी को राष्ट्रभाषा के रूप में प्रतिष्ठित करने हेतु प्रयासरत थे। 'जूही की कली' स्थूल दृष्टि से तो नहीं किन्तु सूक्ष्म दृष्टि से राष्ट्रीय स्वतंत्रता आंदोलन की विषयवस्तु के साथ तात्कालिक समाजिक, राजनैतिक और सांस्कृतिक आन्दोलन को अपने अंदर समाहित किये हुए हैं। जैसा कि इस कविता की बाहरी बनावट या अभिधात्मक रूप कविता को केवल प्रकृति चित्रण जैसा प्रतीत करता है, किन्तु किसी भी कविता का अपने समकालीन यथार्थ एवं विषय-वस्तु का संबंध स्थापन केवल एक स्तर पर नहीं वरन कई सारे स्तरों पर होता है और यही कारण है कि कविता एक स्तर पर नहीं तो अगले स्तर पर राष्ट्रीय जागरण या आन्दोलन की मूल चुनौतियों को गहराई से समझते हुए अभिव्यक्त होता है।

*** ‘लोकवादी तुलसीदास’

रचनाकार की दृष्टि यदि उनकी रचनाओं में समाहित हो तो रचनाकार का व्यक्तित्व व उनकी विशेषताओं को उजागर करने के लिए रचना से परे कम ही भटकना पड़ता है.  तुलसीदास को 'लोकवादी' का विशेषण देने के लिए डॉ विश्वनाथ त्रिपाठी अपनी पुस्तक 'लोकवादी तुलसीदास'  में उनकी रचनाओं को ही आधार बनाते हैं और यथेष्ट विवरण एवं उद्धरण से तुलसी की लोकवादिता को प्रस्तुत करते हैं. इसी क्रम में उन बिन्दुओं को भी बेहिचक रेखांकित करते हैं जहाँ तुलसी की लोकवादिता खंडित होती है. लेकिन इस खंडन के कारण पुस्तक का नाम त्रिपाठी जी नहीं बदलते. पुस्तक का नाम ध्येय-सापेक्ष होता है और इस पुस्तक के नाम से उनका ध्येय स्पष्ट हो जाता है.

तुलसीदास को विषय बनाना इतिहास और परंपरा में सप्रयोजन प्रवेश करना है. प्रयोजन वर्तमान से सम्बद्ध ही नहीं अतीत से विशेष लगाव का भी हो सकता है. इतिहास और परम्परा के प्रति विशेष लगाव का मतलब आँख मूंदकर गले लगाना नहीं बल्कि अपनी रचना-दृष्टि और उद्देश्य के अनुरूप परंपरा का साक्षात्कार करना है. 'लोकवादी तुलसीदास' इसी तरह का साक्षात्कार है. डॉ. त्रिपाठी ने इसे चार अध्यायों में विभक्त किया है. प्रथम अध्याय 'तुलसी के राम' में तुलसी के अधीष्ट 'राम के रामत्व' को अन्य रचनाओं के राम से पृथक करते हुए उसकी विशिष्टता को सामने लाते हैं. उन्होंने लिखा कि वाल्मीकि, भवभूति, तुलसी और निराला के 'रामों' में जो अंतर है उसका कारण इन महाकवियों के युगबोध का अंतर है. एक ही धरातल पर समानता दिखती है और वह है केवल राम का संघर्ष.  (पृ० २५)  तुलसीदास ने राम के जीवन की अविरल संघर्ष-परंपरा को स्वीकार कर उनके चरित्र को अपनी रचनाओं में पुनः स्थापित करने के स्थान पर अपने युग के नायक के रूप में चित्रित किया. यह नायक तुलसी के दर्शन और चिंतन में तो ब्रह्म है लेकिन उनकी कविता में लोकनायक है. राम के रामत्व के साथ नायक का नायकत्व भी पृथक हो जाता है. राम-नाम की महिमा गाते समय तुलसी निस्सम्बल, असहाय, अभागे, गुणहीन, गरीब, दीन, अकुलीन, पंगु, अंधे, भूखे आदि जन को याद करते हैं. इन्हीं दीन जनों के बंधु हैं तुलसी के लोकनायक. तुलसी भक्त-कवि हैं लेकिन उनके भक्ति और उनके राम में इस लोक की पूरी समाई है. डॉ. त्रिपाठी ने इन्हीं संदर्भो में राम को 'मानव  इतिहास के संघर्षशील व्यक्ति' का और सहायक बन्दर भालू को 'सर्वहारा का प्रतीक'  बना सकने की बात रखते हुए लिखा - "जो लोग राम कथा के इन प्रतीकों को नहीं समझते, वे सचमुच अधिकारी हैं तुलसी को सामंती व्यवस्था का पोषक और संकीर्णतावादी कहने को." (पृ०-२५)

*** बालश्रम


ज बच्चे हमारे सबसे मूल्यवान प्राकृतिक संसाधन हैं। वे समाज और संसार के नियंता हैं। नियंता इस दृष्टि से कि उनके द्वारा उस समाज को आगे बढ़ाया जाना है जिसमें उनका पालन हो रहा है, जिसमे उनका बचपन गुज़र रहा है। मानव जीवन के सबसे स्वतंत्र और स्वच्छंद समय को देखा जाए तो निःसंदेह उसका नाम बचपन ही है किन्तु क्या हम यह कह सकते हैं कि हर बचपन में स्वच्छंदता है? क्या बच्चों को माँ की लोरियाँ नसीब हैं? क्या बचपन को खिलौने मिल रहें है? आज हमारे सामने ये गंभीर सवाल हैं। हर वर्ष 12 जून को हम विश्व बालश्रम निषेध दिवस के रूप में मनाते हैं। यह दिवस उन अबोध नौनिहालों के लिए होता है जो होते तो हमारे लाडलों की तरह ही हैं लेकिन गरीबी की गिरफ़्त में इस कदर जकड़ उठते हैं कि उन्हें बचपन की अमीरी का एहसास ही नही होता है। 2011 की जनगणना के मुताबिक भारत में पच्चीस करोड़ छियानबे लाख ऐसे बच्चे हैं जिनकी उम्र 5 से 11 साल के बीच है। इनमें से करीब 1 करोड़ बच्चे श्रमिक हैं। यदि राज्यों को देखा जाए तो तकरीबन उत्तरप्रदेश में 21 लाख, बिहार में 10 लाख, राजस्थान में 8 लाख बाल मज़दूर हैं। आज देश के लगभग सभी ढाबों, होटलों, पंचर की दुकानों या इस तरह के अन्य कामों में बच्चों को देखा जा सकता है। ऐसा नही है कि इन कामों में सिर्फ लड़के ही श्रमिक हैं बल्कि लड़कियां भी  इन कार्यों में लगीं हैं। अधिकतर धनाढ्य घरों में आपको लड़के और लड़कियां आपको काम करते दिख जायेंगे जहाँ उनका उत्पीड़न भी होता है।

*** वैष्णव भक्ति आन्दोलन का अखिल भारतीय स्वरुप


रतीय इतिहास में मध्यकाल राजनीतिक, सांस्कृतिक, आर्थिक तथा सामाजिक सभी दृष्टि से महत्वपूर्ण था । एक और जहाँ इस्लामी संस्कृति भारतीय सामाजिक संरचना को प्रभावित कर रही थी तो वहीं इसकी पृष्ठभूमि में भक्ति आंदोलन का सूत्रपात भी होता है । साहित्येतिहास में इसे स्वर्णिम काल की संज्ञा दी गई है । भक्ति आंदोलन ने समय समय पर लगभग पूरे देश को प्रभावित किया और उसका धार्मिक सिद्धांतों, धार्मिक अनुष्ठानों, नैतिक मूल्यों और लोकप्रिय विश्वासों पर ही नहीं, बल्कि कलाओं और संस्कृति पर भी निर्णायक प्रभाव पड़ा।[1]

            उत्तरी भारत में चोदहवीं से सत्रहवीं शताब्दी में फैली भक्ति आंदोलन की उद्दाम लहर समाज के वर्ण, जाति, कुल और धर्म की परिसीमाओं का अतिक्रमण कर सम्पूर्ण जनमानस की चेतना में व्याप्त हो गई थी । जिसने एक जन आंदोलन का रूप ग्रहण कर लिया । भक्ति आंदोलन में साधक या भक्त के द्वारा मोक्ष प्राप्ति अथवा आत्म साक्षात्कार के लिए परमात्मा के सगुण या निर्गुण रूप की भक्ति ही नहीं की गई वरन भक्ति के माध्यम से तदयुगीन सामाजिक जीवन में स्थित एक वर्ण या जाति के प्रति कीए गए अत्याचार, अन्याय और शोषण के खिलाफ असहमति और विरोध का प्रदर्शन था । साथ ही उसने जन सामान्य की आशाओं, आकांक्षाओं और आदर्शों की भी अभिव्यक्ति हुई थी ।[2]

*** सुख की उपभोक्तावादी परिभाषाओं के विरूद्ध : ईदगाह


दगाह पढ़ कर प्रायः पहला विस्मय हामिद के बारे में होता है। ऐसा बच्चा सचमुच का हो सकता है क्या। उम्र चार पांच साल। गरीब सूरत गरीब हालत। दादी का इकलौता अनाथ। अड़ोसियों पड़ोसियों की अभिभावकता में साथी बच्चों के साथ गांव से शहर तक पैदल चल कर जाता है , सारे दिन भूखा प्यासा मेले में भटकता है और भूखा ही लौट आता है क्योंकि दादी के हाथों को जलने से बचाने के लिये एक चिमटा खरीदना ज्यादा ज़रूरी था। बहुत दिनों तक इस कहानी के विषय में चर्चा हामिद के चरित्र की स्वाभाविकता और बाल मनोविज्ञान की समझ के आस पास घूमती रही। स्वयं प्रेमचंद ने अपनी ओर से ऐसे अनेक विवरण जुटाये हैं जो स्वाभाविकता की कसौटी पर हामिद के चरित्र के औचित्य को प्रमाणित करते हैं। हम कह सकते हैं कि कहानी के भीतर इस स्वाभाविकता का अर्जन किया गया है। पाठक इस संदर्भ में अपनी इच्छा और अनुभव के दायरे के अनुसार पक्ष और विपक्ष दोनो ओर से तर्क जुटा सकता है। यथार्थ और स्वाभाविकता की हमारी कसौटी प्रायः इसी के द्वारा निर्धारित होती है कि हमारा अपना अनुभव और दूसरों के अनुभव के बारे में हमारी जानकारी की सीमा क्या है। किसी कृति पर इस संदर्भ में टिप्पणी करते समय हम इसे बिना किसी किस्म की आत्मसजगता के अंतिम और संपूर्ण मान लेते हैं और इस आधार पर फैसला सुना देते हैं कि कहानी के बाहर जितने बच्चे हमने देख रखे हैं हामिद का औसत व्यवहार उनसे मेल खाता है या नहीं। हम इस बात की छूट देना भी याद नहीं रखते कि विपन्नता की जिस हद पर रहते हुए और दादी के प्यार की खूराक से पोषित होते हुए हामिद जीना सीख रहा है वह हमारे मध्यवर्गीय अनुभव की सीमाओं के बाहर अतः अपरिचित सा ज्ञात होते हुए भी हामिद के संदर्भ के लिये स्वाभाविक हो सकता है। वह उस संसार का वासी है जिसके बच्चे अपना बचपना जल्दी खो देते हैं। चार पांच साल की उम्र के इस बेहद गरीब बच्चे के चारो ओर एक बड़ा सा मेला है। बच्चे की जेब में कुल तीन पैसे है जिन्हे लेकर वह खरीदार की हैसियत से इस मेले में मौजूद है। इस मेले में वह अकेला नहीं है। उम्र में उससे थोड़ा ही बड़े हैसियत में उससे कुछ ही बेहतर उसके दोस्त भी साथ में मौजूद हैं। सामान्यतः उन्हें भी उसी विपन्न समाज और उसी वंचित बचपन के साकार अभिप्रायों के रूप में देखा जा सकता है लेकिन हामिद का आचरण अन्यों की तुलना में भिन्न और विशिष्ट होकर उभरता है। ये बाकी बच्चे हामिद के इसी आचरण की भिन्नता को एक परिप्रेक्ष्य देने और रेखांकित करने का कथात्मक उद्देश्य निभाने के साथ साथ यह भी रेखांकित करते हैं कि गरीबी की अंतिम रेखाओं के आसपास जीते हुए भी भूखे पेट सो रहने की विवशता ,आधापेट खा पाना, भरपेट खाने को पा जाना ,कभी कभी मनपसंद भी खा सकने की विलासिता की औकात रखना आदि देखने में भले ही उसी एक स्थिति की निकट श्रेणियां प्रतीत होती हों वस्तुतः वे एक दूसरे से गुणात्मक रूप से भिन्न जीवनस्थितियां हैं। हामिद पहली कोटि की विपन्नता के संसार का वासी है। मातापिताविहीन होने के कारण भावात्मक रूप से भी असुरक्षित हैं। उसके पास एक अकेली दादी है जो अपनी है। इन सारे संदर्भों को देखते हुए यह निष्कर्ष अनुचित नहीं कि कम से कम स्वयं प्रेमचंद ने तो पूरी यात्रा हामिद के बोध और तर्क की सीमाओं के साथ तय की है। 

*** एक बीज की तरह : नरेश सक्सेना



विता हमारी सांस्कृतिक धरोहर है. हमारे अपने समय का ऐसा दस्तावेज़, जिसके माध्यम से कवि प्रतीकों में इतिहास दर्ज करता है. इतिहास को तो तथ्यात्मक होना चाहिए, लेकिन कविता के पास यह स्पेस है कि वह अधिक विवरणात्मक और काल्पनिक होकर भी प्रतीकों में अपने समय के यथार्थ को अभिव्यक्त कर सके. आज की कविता में किस्से कहने का चलन तेज़ी से बढ़ा है. इन किस्सों में विवरण है और विवरणों में व्यक्त होती विडम्बना. विडम्बना आधुनिक कविता को उसकी आतंरिक लय देती है जो गेयात्मक हो यह ज़रूरी नहीं. यह लय आधुनिक कविता का अपना शास्त्र (शब्दावली) है, जिसे उसने आधुनिकता की यात्रा में अर्जित किया है. यहाँ शास्त्र परंपरागत रूप में कविता को बांधता नहीं है बल्कि उसे मुक्त करने का विन्यास है. यही लय कविता की स्वाभाविक गति भी है. चूँकि आज के समय में व्यक्ति की चुनौतियाँ, उसके संघर्ष, और सरोकार तेज़ी से बदले हैं. इसलिए कविता भी अपने पुराने फार्मूले से अलग हुई है. निरंतर परिवर्तित होते हुए विकास के अलग-अलग सोपानों को आधुनिक कविता की बुनावट और विश्लेषण के नए सन्दर्भों के रूप में कवि ने स्वयं प्रस्तावित किया है. यह प्रस्तावना नई और अग्रगामी है. इस प्रस्तावना के भीतर नरेश सक्सेना ने अपनी कविताओं की उपस्थिति बहुत मजबूती के साथ दर्ज करवाई है.