*** काव्य-निर्णय में सहृदय की भूमिका |
*** 'दिनकर' की काव्यगत विशेषता |
1). राष्ट्रीय भाव धारा के प्रमुख कवि
रामधारी सिंह की कविताओं में राष्ट्रीयता कूट-कूट कर भरी भरी है। उनकी कविताओं को पढ़कर सहज मानव के हृदय में भी राष्ट्र के लिए कुछ कर लुटाने का भाव उमड़ पड़ता है और पराधीन भारत के कवि होने के नाते यह स्वाभाविक भी था। उस दौर के लगभग सभी कवियों या कवयित्रियों की रचनाओं में राष्ट्रीयता प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से विद्यमान है किंतु इन सभी रचनाकारों से दिनकर इस मामले में थोड़े भिन्न है। एक तरफ जहां राष्ट्रवाद बड़ी संयम के साथ मैथिलीशरण गुप्त, रामनरेश त्रिपाठी आदि की रचनाओं में आता था तो वहीं दूसरी ओर थोड़े और क्रांति के साथ माखनलाल चतुर्वेदी, बालकृष्ण शर्मा, सुभद्रा कुमारी चौहान आदि की कविताओं में विकल्प के साथ या गुंजाइश के साथ परिलक्षित होता था।किंतु इन सब के इतर दिनकर की कविताएँ हर सीमा रेखा को लांघ कर पाठक में हृदय में चिंगारी पैदा कर देता था। वह अक्सर विकल्प विहीन दिखती हैं। उदाहरण के लिए-
पूछेगा बूढ़ा विधाता तो मैं कहूँगा,
हाँ तुम्हारी सृष्टि को हमने मिटाया।
यहाँ कवि सृष्टि को ही मिटा देने की बात करता है क्योंकि उसे यह सृष्टि शोषण से युक्त नजर आती है।
*** मीरा का काव्य और ‘स्त्रीत्व’ का निर्माण |
मीराबाई जैसी मध्ययुगीन कवयित्री को स्त्री सन्दर्भों में पढ़ना चुनौती भरा काम है। मीरा के सन्दर्भ में अक्सर यह देखा गया है कि उनके व्यक्तिगत जीवन और भक्ति सन्दर्भों को लेकर प्राय: हिन्दी आलोचना का रवैया ‘नारी गौरवान्वयन’ कर पुरुष सन्दर्भों के लिये स्थान सुरक्षित रख करके स्त्री को देवी जैसे शब्दों के मायालोक में कैद कर देता है। मीरा को स्त्री सन्दर्भों में पढ़ने से प्रथमतया स्त्री के परम्परागत तर्क के सारे अभियान उथले और झूठे साबित हो जाते हैं और हिन्दी आलोचना की वह प्रवृत्ति भी छल पूर्ण दिखाई देने लगती है जो तीर को गलत निशाने पर बहुत सोच समझ कर लगाती है। यह आलोचना रचनाकार के उन प्रसंगों को राजी से नहीं तो ज़बरदस्ती उभार देती है जो गौण महत्व रखते हैं। मीरा के बारे में भी इन आलोचकों का रवैया सहानुभूतिपूर्ण होते हुए भी तमाम पूर्वग्रहों से भरा होकर ऐसी बातों में मीरा की महानता और देवीत्व दिखाने की कोशिश करता है जिनसे कि अधिक से अधिक एक व्यक्तिगत कहानी भर ही उभर पाती है। हालांकि यह भी कम महत्वपूर्ण नहीं होता कि एक पूरी और साफ कहानी उभर आये, पर ठीक से यह भी नहीं सध पाता और मीरा विधवा या सधवा थी, राणा उसका पति था या देवर था में ही सारी बहस उलझ कर रह जाती है। मीरा के सन्दर्भ में स्त्री प्रश्नों को उठाना इसलिये भी चुनौतीपूर्ण है कि ऐसा करने से ‘भक्त’ के ‘स्त्री’ में बदलने का पूरा उपक्रम खड़ा हो जायेगा, जिससे धार्मिक ढाँचे के खतरे में पड़ने की सम्भावना बढ़ जाती है। धार्मिक छाया का यह दवाब शायद ही कभी हिन्दी आलोचना का पीछा छोड़ पाया है।
*** रामविलास शर्मा की आलोचना और स्त्री संदर्भ |
ज बाज़ारवाद पर जो लोग अच्छी चर्चा कर रहे हैं वे स्त्रीवादी विमर्श के लोग हैं. बाजार का सबसे बड़ा असर व्यक्तिगत और पारिवारिक जीवन पर पड़ा है. इसने व्यक्तिगत भावनाओं, धार्मिक आस्थाओं और परम्परागत समाज के स्त्रियोचित-पुरुषोचित व्यवहार को लाभ के लिए भुनाया है. औरत की देह के सवाल को नग्नता, वासना, उत्पाद से जोड़ा है और यह सब बाजार की लाभ नीतियों के तहत बड़ी कुशलता से किया गया है. मिडिल क्लास जो दैनंदिन दिनचर्या और रूचियों तक सीमित है वस्तुतः उपभोक्तावादी है. उसके लिए सभी प्रश्न इच्छा-अनिच्छा के प्रश्न हैं. सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक रूप में वे गौण हैं. वामपंथ ने बाजार के खतरों और नीतियों को पहले-पहले भांपा लेकिन मजदूर से किसान के संघर्ष तक ही अपनी पहुँच बना सके. नामवर सिंह ने एक साक्षात्कार में कहा था -‘‘हमलोगों ने स्त्रियों पर होनेवाले अत्याचारों पर उतना ध्यान नहीं दिया जितना देना चाहिए था.’’ (स्वाधीनता, पत्रिका, शारदीय विशेषांक, 2000, पृ0 - 28) यह एक ऐसी कमजोरी थी, जिसे यूरोपियन देशों और खासतौर से अमेरिका के वामपंथी दलों ने सबसे पहले पकड़ा.
*** 'जूही की कली' : युवा पाठ |
*** ‘लोकवादी तुलसीदास’ |
*** बालश्रम |
ज बच्चे हमारे सबसे मूल्यवान प्राकृतिक संसाधन हैं। वे समाज और संसार के नियंता हैं। नियंता इस दृष्टि से कि उनके द्वारा उस समाज को आगे बढ़ाया जाना है जिसमें उनका पालन हो रहा है, जिसमे उनका बचपन गुज़र रहा है। मानव जीवन के सबसे स्वतंत्र और स्वच्छंद समय को देखा जाए तो निःसंदेह उसका नाम बचपन ही है किन्तु क्या हम यह कह सकते हैं कि हर बचपन में स्वच्छंदता है? क्या बच्चों को माँ की लोरियाँ नसीब हैं? क्या बचपन को खिलौने मिल रहें है? आज हमारे सामने ये गंभीर सवाल हैं। हर वर्ष 12 जून को हम विश्व बालश्रम निषेध दिवस के रूप में मनाते हैं। यह दिवस उन अबोध नौनिहालों के लिए होता है जो होते तो हमारे लाडलों की तरह ही हैं लेकिन गरीबी की गिरफ़्त में इस कदर जकड़ उठते हैं कि उन्हें बचपन की अमीरी का एहसास ही नही होता है। 2011 की जनगणना के मुताबिक भारत में पच्चीस करोड़ छियानबे लाख ऐसे बच्चे हैं जिनकी उम्र 5 से 11 साल के बीच है। इनमें से करीब 1 करोड़ बच्चे श्रमिक हैं। यदि राज्यों को देखा जाए तो तकरीबन उत्तरप्रदेश में 21 लाख, बिहार में 10 लाख, राजस्थान में 8 लाख बाल मज़दूर हैं। आज देश के लगभग सभी ढाबों, होटलों, पंचर की दुकानों या इस तरह के अन्य कामों में बच्चों को देखा जा सकता है। ऐसा नही है कि इन कामों में सिर्फ लड़के ही श्रमिक हैं बल्कि लड़कियां भी इन कार्यों में लगीं हैं। अधिकतर धनाढ्य घरों में आपको लड़के और लड़कियां आपको काम करते दिख जायेंगे जहाँ उनका उत्पीड़न भी होता है।
*** वैष्णव भक्ति आन्दोलन का अखिल भारतीय स्वरुप |
रतीय इतिहास में मध्यकाल राजनीतिक, सांस्कृतिक, आर्थिक तथा सामाजिक सभी दृष्टि से महत्वपूर्ण था । एक और जहाँ इस्लामी संस्कृति भारतीय सामाजिक संरचना को प्रभावित कर रही थी तो वहीं इसकी पृष्ठभूमि में भक्ति आंदोलन का सूत्रपात भी होता है । साहित्येतिहास में इसे स्वर्णिम काल की संज्ञा दी गई है । “भक्ति आंदोलन ने समय समय पर लगभग पूरे देश को प्रभावित किया और उसका धार्मिक सिद्धांतों, धार्मिक अनुष्ठानों, नैतिक मूल्यों और लोकप्रिय विश्वासों पर ही नहीं, बल्कि कलाओं और संस्कृति पर भी निर्णायक प्रभाव पड़ा।“[1]
*** सुख की उपभोक्तावादी परिभाषाओं के विरूद्ध : ईदगाह |
*** एक बीज की तरह : नरेश सक्सेना |
विता हमारी सांस्कृतिक धरोहर है. हमारे अपने समय का ऐसा दस्तावेज़, जिसके माध्यम से कवि प्रतीकों में इतिहास दर्ज करता है. इतिहास को तो तथ्यात्मक होना चाहिए, लेकिन कविता के पास यह स्पेस है कि वह अधिक विवरणात्मक और काल्पनिक होकर भी प्रतीकों में अपने समय के यथार्थ को अभिव्यक्त कर सके. आज की कविता में किस्से कहने का चलन तेज़ी से बढ़ा है. इन किस्सों में विवरण है और विवरणों में व्यक्त होती विडम्बना. विडम्बना आधुनिक कविता को उसकी आतंरिक लय देती है जो गेयात्मक हो यह ज़रूरी नहीं. यह लय आधुनिक कविता का अपना शास्त्र (शब्दावली) है, जिसे उसने आधुनिकता की यात्रा में अर्जित किया है. यहाँ शास्त्र परंपरागत रूप में कविता को बांधता नहीं है बल्कि उसे मुक्त करने का विन्यास है. यही लय कविता की स्वाभाविक गति भी है. चूँकि आज के समय में व्यक्ति की चुनौतियाँ, उसके संघर्ष, और सरोकार तेज़ी से बदले हैं. इसलिए कविता भी अपने पुराने फार्मूले से अलग हुई है. निरंतर परिवर्तित होते हुए विकास के अलग-अलग सोपानों को आधुनिक कविता की बुनावट और विश्लेषण के नए सन्दर्भों के रूप में कवि ने स्वयं प्रस्तावित किया है. यह प्रस्तावना नई और अग्रगामी है. इस प्रस्तावना के भीतर नरेश सक्सेना ने अपनी कविताओं की उपस्थिति बहुत मजबूती के साथ दर्ज करवाई है.