*** फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ : निर्वासन के दर्द का अहसास




शहूर उत्तरउपनिवेशवादी चिंतक एडवर्ड सईद ने कई अन्य पाश्चात्य चिंतकों की तरह निर्वासन के शिकार या विस्थापित लेखकों और अपने मुल्क से दूर कर दिये गये नागरिक समूहों के बारे में विस्तार से लिखा है। अपने इसी सैद्धान्तिक चिंतन के बीच उन्होंने महमूद दरवेश और फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ का भी ज़िक्र किया है। वे फ़ैज़ से बेरूत में उन दिनों मिले थे जब पाकिस्तान में ज़ियाउल हक़ की फ़ौजी तानाशाही फै़ज़ जैसे जम्हूरियतपसंद अदीबों और दानिशवरों पर किसी भी तरह का कहर बरपा कर सकती थी। फै़ज़ से अपनी मुलाक़ात का ज़िक्र करते हुए एडवर्ड सईद ने अपने एक लेख, 'निर्वासन पर कुछ चिंतन´ में लिखा :
कई बरस पहले मैंने अपने ज़माने के उर्दू के अज़ीमतर शायर फै़ज़ अहमद फै़ज़ के साथ कुछ वक़्त बिताया था। वे अपने वतन पाकिस्तान में ज़िया के फ़ौजी शासन के चलते निर्वासित हो कर बेरुत आ गये थे जहां उनका एक तरह से स्वागत हुआ। फि़लिस्तीनी उनके स्वाभाविक तौर से जिगरी दोस्त थे। मैंने महसूस किया कि उन में आपस में बड़ी गहरी आत्मीयता थी जब कि उनकी न तो ज़बान या शेरी रवायत या ज़िंदगी की तारीख़ ही उनसे मिलती जुलती थी। सिर्फ़ एक बार मैंने फै़ज़ को अपने निर्वासन के दर्द से उबरते हुए देखा था जब उनके एक पाकिस्तानी दोस्त, इक़बाल अहमद बेरुत आये थे जो खु़द भी निर्वासित थे। हम तीनों एक गंदे से रेस्त्रां में देर रात तक जमे रहे, फै़ज़ अपनी नज़्में सुनाते रहे। कुछ देर बाद इक़बाल और उन्होंने हमारे लिए नज़्मों का तर्जुमा करना बंद कर दिया। जैसे रात गुज़रती गयी, इससे कोई दुश्वारी पेश नहीं हुई। जो मैं देख रहा था, उसके लिए किसी तर्जुमे की दरकार नहीं थी। यह नज़ारा एक तरह से प्रतिरोध के स्वर से भरी घरवापसी जैसा था, मानो वे कह रहे हों, 'ऐ ज़िया, ले हम आ गये, लाज़िम है, हम भी देखेंगे।´ ज़िया तो असलियत में अपने मुल्क में ही था, वह उनके प्रतिरोध की आवाज़ नहीं सुन रहा था।
एडवर्ड सईद ने फै़ज़ के साथ अपना वक़्त गुज़ारने की इतनी भर दास्तान लिखी लेकिन इतने से ही निर्वासन के उस दर्द का अहसास हमें ज़रूर करा दिया जिसे फै़ज़ साहब ने अपनी ज़िदगी के कई बरसों तक या तो जेलों में रह कर झेला था या फिर दूसरे मुल्कों में रह कर। उनके इस दर्द को उस हक़ीक़त में भी देखा जा सकता था जो फै़ज़ साहब के नज़्म सुनाने के अंदाज़ में छिपी हुई रहती थी और जिससे सुनने वालों को शिकायत रहती थी। मुझे भी उन्हें सुनने का मौक़ा मिला था। नयी दिल्ली के फि़क्की आडीटोरियम में उनका जलसा था जिसमें उन्होंने नज़्में और ग़ज़लें सुनायीं, उसी ग़ैरनाटकीय तरीक़े से जिसका ज़िक्र अक्सर लोग करते थे, उमा शर्मा ने उनकी ग़ज़लों पर एक नृत्यनाटिका तैयार की थी जिससे जलसे में एक नया ही रंग आ गया था, फिर भी वह गायकी सुनने को नहीं मिली जो इक़बाल बानो की `लाज़िम है कि हम भी देखेंगे´ की चुनौतीभरी आवाज़ में उन दिनों सुहैल हाशमी के पास के एक कैसेट में सुनी थी और उसकी प्रतिलिपि अपने पास भी मैंने रखी थी। अब तो इसे इंटरनेट पर आसानी से इक़बाल बानो की वीडियो रिकार्डिंग में सुना जा सकता है।

फै़ज़ की शायरी में 'दर्द´ और 'तनहाई´ शब्द बार बार आये हैं, लेकिन ये शब्द हमारे अदब के बहुत से आधुनिकतावादियों की तरह ओढ़े हुए 'अकेलेपन´ या 'दुख सबको मांजता है´(अज्ञेय) के सूत्रबद्ध 'दुख´ का आख्यान नहीं हैं, ये तो एक अलग तरह की अनुभूति से उपजे शब्द हैं। सज्जाद ज़हीर ने आधुनिकतावादियों के अकेलेपन को फ़ैशन के तौर पर अपनाया हुआ अकेलापन बताया था। उन्होंने लिखा था:
तनहाई की भावनाओं का वर्णन करना हर कवि अपना पैदाइशी हक़ समझता है और आजकल कतिपय कवियों औार चिंतकों ने तो इसको बाक़ायदा दर्शन का रूप दे दिया है और वे अपने तथाकथित एकाकीपन को इतनी अहमियत देते हैं जितना ज़ोर एक ईश्वर को माननेवाले मुसलमान अल्लाह-त´आला के एकाकी और अद्वितीय होने को देते हैं। लेकिन आप ज़रा फ़ैज़ की इस दर्दनाक लेकिन हसीन तनहाई की कल्पना कीजिए जिसमें दस्ते-सबा की नर्मी और ठण्डक प्रेयसी के हाथों की याद दिलाती है, और चांद की वक्रता को देखकर प्रिया की अनुपस्थिति में, उसके गले में बांहें डाल देने को जी चाहता है। 
हिंदी में अज्ञेय ने इसी तरह के 'अकेलापन´ का दर्शन ओढ़ा हुआ था। उन्होंने अपनी एक कविता, 'सवेरे उठा तो´ में लिखा था : 
उस अनदेखे अरूप ने कहा : हां,
क्योंकि ये ही सब चीज़ें तो प्यार हैं
यह अकेलापन, यह अकुलाहट, यह असमंजस, अचकचाहट,
आर्त, अननुभव, यह खोज, यह द्वैत, यह असहाय विरह व्यथा,
यह अन्धकार में जाग कर सहसा पहचानना कि

जो मेरा है वही ममेतर है
यहां जिस 'अनदेखे अरूप´ का ज़िक्र है उसे 'अल्लाह-त´आला´ ही समझना चाहिए जो हिंदी के आधुनिकतावादियों को वैराग्य का पाठ पढ़ा रहा था और 'जो मेरा है´ वही 'ममेतर´ लग रहा था, शुद्ध अकेलापन भोगता हुआ काव्यनायक पचास के दशक में हिंदी की आधुनिकतावादी कविता में खू़ब फल फूल रहा था, वह 'नदी का द्वीप´ था या 'एक बूंद´ या 'कनु´। इस सबके विपरीत फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ का काव्यनायक माडर्निज्म का लबादा ओढ़े शौक़िया तनहाई का शिकार नहीं था, उसे तो क़ैदे तनहाई में या मुल्क बदर हो कर निर्वासन का दर्द झेलना पड़ रहा था। 

यह तो एक आम कहावत है कि 'जाके पैर न फटी बिवाई/सो का जाने पीर पराई´। एडवर्ड सईद ने निर्वासन के दर्द का फ़लसफ़ाई जायज़ा लेते हुए इस सत्य को रेखांकित किया है। उन्होंने लिखा है कि 'बीसवीं सदी के पैमाने पर, निर्वासन की घटनाओं को न तो सौंदर्यशास्त्रीय तरीक़े से और न ही मानवतावादी नज़रिये से ठीक से समझा जा सकता है, निर्वासन के बारे में रचा गया साहित्य तो सिर्फ़ उस दर्द और नियति को एक वस्तु में बदल भर देता है जिस दर्द से हो कर ज़्यादातर लोग खुद नहीं गुज़रे हैं।´ यह सच्चाई है कि निर्वासन खुद जिसने झेला है, वह जिस गहरी अनुभूति के साथ उसका बयान कर सकता है, वह दूसरा कोई नहीं कर सकता। फ़ैज़ पहले अपने ही वतन में ही 1951-1955 और फिर 1958 में जेल में बंद कर दिये गये, उसके बाद जब जब जम्हूरियत को रौंद कर फ़ौजी हकूमत क़ायम हुई, फ़ैज़ खुद ही बर्तोल्त ब्रेख़्त की तरह मुल्कबदर हो गये, ऐहतियातन उनके लिए यह ज़रूरी था। 

एडवर्ड सईद ने अपनी जिस मुलाक़ात का ज़िक्र किया है, उस वक़्त वे बेरुत में आत्मनिर्वासित थे। उनके आत्मनिर्वासन के दर्द को उनकी अनेक रचनाओं में देखा जा सकता है। जेल के अंदर का निर्वासन किस तरह नज़्म की शक्ल अख़्तियार करता रहा, उस पर तो उनके हमदम, उनके दोस्त सज्जाद ज़हीर और मेजर मुहम्मद इस्हाक़ ने अपने लेखों में विस्तार से रोशनी डाली है। दस्ते सबा और ज़िंदांनामा की नज़्में तो हैं ही उसी दौर की, लेकिन तनहाई और निर्वासन का दर्द उनकी बाद की रचनाओं में एक थीम की तरह उभरता है।
कहीं तो कारवाने दर्द की ठहर जाये
किनारे आ लगे उम्र-ए-रवां या दिल ठहर जाये
अमां कैसी कि मौज-ए-ख़ूं अभी सर से नहीं गुज़री
गुज़र जाये तो शायद बाजू़-ए-क़ातिल ठहर जाये
(नुस्ख़ा हाए वफ़ा, पृ. 465)
1971 में लिखी यह ग़ज़ल ज़िदगी भर सहे निर्वासन के दर्द का अहसास कराती है, 'बाजू-ए-क़ातिल´ का साया उन पर मंडराता रहा, पाकिस्तान में जम्हूरियत फ़ौजी बूटों के तले रौंदी जाती रही, और कोई न कोई तानाशाही निज़ाम क़ायम होता रहा, और इसीलिए यह समाजी दर्द उनकी आखि़री शायरी तक रचना की शक्ल में हमारे सामने आता रहा।

फै़ज़ की शायरी के वाचक मुक्ति का इंतज़ार करते हैं, यह मुक्तिकामना उनकी अपनी किसी जेल से रिहाई या अपने वतन से दूर रहने के दर्द से निजी मुक्ति से जुड़ी हुई नहीं है, इसीलिए वह निजी या लिरिकल लगती हुई भी एक नाटकीय या वस्तुपरक आख्यान बन जाती है, क्योंकि उसमें तो उस सामाजिक व्यवस्था से मुक्ति का इंतज़ार है जो अभी हासिल नहीं हुई, मुक्ति की उस सुबह का इंतज़ार है जिसमें आदमी द्वारा आदमी का शोषण नहीं होगा, जिसमें कोई सरमायादारों का ज़रखरीद गुलाम तानाशाह अवाम के जम्हूरी हक़ नहीं छीन रहा होगा या सामराजी मुल्क तीसरी दुनिया के मुल्कों पर अपना कब्ज़ा बनाये रखने में कामयाब न हो पायेंगे और सामराजी ताक़तें पूरी दुनिया को किसी आलमी जंग में न झोंक पायेंगी। समाजवाद का सपना देखने वाले तमाम राजनीतिक और विचारधारात्मक संगठनों और रचनाकारों, कलाकारों को उसी मुक्ति की सुबह का इंतज़ार आज भी है। भारत जब आज़ाद हुआ तो उस आज़ादी की सुबह ने कवियों और कलाकारों के जागरूक हिस्सों को उस तरह की खुशी नहीं दी जो आज़ादी उनके सपनों में बसी मुक्ति हासिल होने पर होती। उन्हें इसका गहरा अहसास था कि राजनीतिक सत्ता विदेशी शोषकों के हाथ से देशी शोषक तबक़ों के हाथ आयी है, इसलिए नयी व्यवस्था में भी शोषण की तेग़ ग़रीबों पर चलती रहेगी। हिंदी-उर्दू के कई शायरों ने अपने इस अहसास को वाणी दी, फ़ैज़ ने भी बेख़ौफ़ तरीक़े से अपनी मशहूर नज़्म, 'सुबहे आज़ादी´ में इस अहसास को कहा : `ये दाग़ दाग़ उजाला, ये शबगज़ीदा सहर / वो इंतज़ार था जिसका, ये वो सहर तो नहीं।´

पाकिस्तान के शासकवर्गों ने बार बार वहां के अवाम को सैनिक तानाशाहों के माध्यम से जुल्म और शोषण का शिकार बनाया तो वहां के वामपंथी और जम्हूरियतपसंद शायरों और अदीबों ने बहुत तकलीफ़ें झेलीं, फै़ज़ और हबीब जालिब जैसे शायरों को जेलों में बंद रहना पड़ा, फ़हमीदा रियाज़ को भागकर भारत में शरण लेनी पड़ी। इन हालात पर नज़र डालने पर यह समझ में आता है कि फै़ज़ की कविता में 'दर्द´, 'दुख´, 'ग़म´,`तनहाई´ जैसे बार बार आने वाले शब्दों का क्या सामाजिक सन्दर्भ है। इसी तरह के एक संदर्भ का हवाला एडवर्ड सईद ने थ्योडोर एडोर्नो की निर्वासन के दौरान लिखी उनकी आत्मकथा, क्षत-विक्षत ज़िदगी पर विचार, (Reflections from a Mutilated Life) के बारे में दिये हैं। 'निर्वासन में रह रहा बुद्धिजीवी खुद को एक वस्तु में तब्दील होने से इनकार करता है।´ फ़ैज़ के साथ भी यही होता है कि वे खुद को एक कमोडिटी में तब्दील नहीं होने देते, तानाशाहों को उनसे यही तो शिकायत थी, ऐसी ही स्थिति तो हमारे यहां एमर्जैंसी के दौर में थी जब बहुत से बुद्धिजीवियों ने खुद को वस्तु या मिट्टी का माधो बनने से इनकार कर दिया था और निर्वासन की यातना झेली थी। 

फ़ैज़ ने अपने निर्वासन का दर्द जिस तरह सहा, वह भी एक मिसाल ही है, क्योंकि उसे उन्होंने दुनियाभर के दुखी, ग़रीब, मज़लूमों के ग़म के साथ घुलामिला दिया, ऐसा ही मशविरा उन्हें रशीद जहां से उन दिनों ही मिला था जब वे अमृतसर में कालेज में लेक्चरर थे जिसका हवाला फ़ैज़ ने अपनी आपबीती में और बी बी सी को दिये अपने एक इंटरव्यू में भी दिया था कि अपने ग़मों के बजाय दुनिया भर के ग़रीबों और वंचितों के ग़मों को महसूस करो और उन दुखों को वाणी दो। फ़ैज़ ने फिर वही किया। अपनी महबूबा से भी कह डाला कि पहले जैसी मुहब्बत की मांग पूरी करना मुमकिन नहीं, यहां फ़ैज़ ने अपने 'स्व´ के विस्तार की बात कही है जिसे मुक्तिबोध ने अपनी कई कविताओं में बयान किया था। अपने निज के दर्द से ऊपर उठने की प्रक्रिया आसान नहीं होती, मगर महान कविता के लिए वह ज़रूरी तो होती ही है। यह प्रक्रिया नक़्शे फ़रियादी के दूसरे हिस्से से ही शुरू हो गयी थी, और फिर बाद के संग्रहों में तो दर्द के इस समाजीकरण को बहुत ही कलात्मक तरीक़े से फ़ैज़ ने अपनी शायरी का मौजू बनाया। ग़म की इस बदलती रंगत ने उनकी शायरी में एक नया ही रंग ला दिया। फ़ैज़ ने दुनिया के शोषितों को वे गीत और तराने दिये जो उनकी ज़बान पर नारे बन कर सभी जगह गूंजने लगे। उन्हें अपनी संगठित शक्ति का अहसास कराया, ज़ालिमों के अंत की आशा दी, अपनी अभिव्यक्ति की आज़ादी बनाये रखने का हौसला दिया, उन्होंने ही हमें सिखाया, `बोल कि लब आज़ाद हैं तेरे´। उन्होंने अपने निर्वासन में अभिव्यक्ति की जो शैली ईजाद की वही सारी जनवादी कविता की शैली बन गयी, `हमने जो तर्ज़े फुगां की है क़फ़स में ईजाद / फ़ैज़ गुलशन में वही तर्जे़ बयां ठहरी है´। 

निर्वासन के दर्द को सहने और उसे रचनात्मकता का रूप देने की प्रक्रिया ने फ़ैज़ में क्रांतिकारी आशावाद ज़िंदा रखा। अगर निर्वासन से टूट जाते तो सर्वहारावर्ग के दुश्मनों की ही जीत होती। मेरे दिल मेरे मुसाफि़र में संकलित `शायर लोग´ नज़्म बताती है कि शायर को अपने दर्द को विस्तार देने के लिए क्या करना होता है :
जिन पे आंसू बहाने को कोई न था
अपनी आंख उनके ग़म में बरसती रही
सबसे ओझल हुए हुक्मे हाकिम पे हम
कै़दख़ाने सहे ताज़याने सहे
लोग सुनते रहे साज़े-दिल की सदा

अपने नग़्में सलाख़ों से छनते रहे
(नुस्ख़ा हाए वफ़ा, पृ. 628) 
फ़ैज़ की कविताओं में निर्वासन या क़ैद के जो बिम्ब और प्रतीक आये हैं, या जो नग़्में सलाख़ों से छनते रहे, उन्हें हम ख़ासतौर से उनके उन संकलनों में पूरी कलात्मकता के साथ देख सकते हैं जो दस्ते सबा, ज़िंदांनामा, दस्ते तहे संग, सर-ए-वादी-ए-सीना से शुरू हो कर शाम-ए-शहरे यारां, मेरे दिल मेरे मुसाफि़र, ग़ुबारे अय्याम आदि शीर्षकों से पाठकों के सामने आये। रचनात्मकता की एक लंबी यात्रा उन्होंने तय की, पूरी दुनिया के साहित्य और विचारों की जानकारी उन्हें मिली हुई थी। सारी दुनिया में उन दिनों चल रहे मुक्ति आंदोलनों में जूझ रहे अवाम के साथ उन्होंने ख़ुद को जोड़ा, उन से प्रेरणा ली और अपना हौसला बुलंद रखा। निर्वासन के दर्द का अहसास मेरे दिल मेरे मुसाफि़र जो यासर अरफ़ात को समर्पित संकलन था की पहली नज़्म में एक कलात्मक श्रेष्ठता के साथ देखा जा सकता है:
मेरे दिल मेरे मुसाफि़र
हुआ फिर से हुक्म सादिर
कि वतन बदर हों हम तुम
दें गली गली सदाएं
करें रुख़ नगर नगर का
कि सुराग़ कोई पायें
किसी यार-ए-नामाबर का
हर इक अजनबी से पूछें
जो पता था अपने घर का
(नुस्ख़ा हाए वफ़ा, पृ. 613) 
इसी संकलन की 'तीन आवाज़ें´ कविता में तीन नज़्में आवाज़ की शक्ल में हैं, एक आवाज़, `ज़ालिम´ की है जिसमें व्यंग्य और विडम्बना का अद्भुत प्रयोग है, दूसरी आवाज़ 'मज़लूम´ की है जिसमें दुनिया भर के मज़लूमों का दर्द छलकता है, तीसरी आवाज़ आसमान से आने वाली आवाज़, 'निदा-ए-ग़ैब´ है जो धार्मिक रूपक की तरह दिखने पर भी एक क्रांतिकारी की आवाज़ बन कर दुनिया भर के शोषितों और वंचितों को हौसला देती है : 'उठेगा जब जम्म-ए-सरफ़रोशां/पड़ेंगे दार-ओ-रसन के लाले/कोई न होगा कि जो बचा ले/जज़ा सज़ा सब यहीं पे होगी/यहीं अजाब-ओ-सवाब होगा/यहीं से उट्ठेगा शोर-ए-महशर/यहीं पे रोज़-ए-हिसाब होगा´(नुस्ख़ा-हाए-वफ़ा, पृ.639, समरकंद :1979)।

बेरुत प्रवास के दौरान उन्होंने फि़लिस्तीनी मुक्ति-संग्राम के साथ अपनी एकजुटता क़ायम की और उसे अपनी शायरी का मौजू भी बनाया। बेरुत में 1980 में लिखी 'फि़लिस्तीनी शुहदा जो परदेस में काम आये´ और 'फि़लिस्तीनी बच्चे के लिए लोरी´ उनकी दो मशहूर नज़्में हैं जिनमें उनके निर्वासन के दर्द का अहसास पूरी भावभीनी करुणा के साथ उभरता है। मुक्तिबोध की एक पंक्ति याद आती है, 'भोले भाव की करुणा क्रांतिकारी सिद्ध होती है। फ़ैज़ उक्त दो नज़्मों में से पहली नज़्म में कहते हैं :
दूर परदेस की बे-महर गुज़रगाहों में
अजनबी शहर की बेनामोनिशां राहों में
जिस ज़मीं पर भी खुला मेरे लहू का परचम
लहलहाता है वहां अर्ज़-ए-फि़लिस्तीं का अलम
(नुस्ख़ा हाए वफ़ा, पृ. 657)
और दूसरी नज़्म जो लोरी की विधा में लिखी गयी है निर्वासन का दर्द झेलते बच्चे को सुलाने के लिए नहीं, उसे मुस्कराते रहने के लिए कहती है, बच्चे के सारे अपने परिवारजन उससे दूर कहीं चले गये हैं, यदि वह रोयेगा तो उसे ज़ालिम और रुलायेंगे और मुस्करायेगा तो उसके अपने लोग भेस बदल कर वापस आयेंगे, यहां शायर ने ईसा मसीह की वापसी या `रिज़रैक्शन´ जैसा रूपक बहुत ही सरल शब्दों में बांधा है:
तू गर रोयेगा तो ये सब
और भी तुझको रुलवायेंगे
तू मुस्कायेगा तो शायद
सारे एक दिन भेस बदल कर
तुझ से खेलने लौट आयेंगे
(नुस्ख़ा हाए वफ़ा, पृ. 660)
मुस्कराते हुए दर्द को झेलना उनकी शायरी की टेकनीक ही नहीं, अवाम के दुश्मनों को चुनौती भी रही, अपने एक गीत में उन्होंने कहा था, `अपने दर्दों का मुकुट पहन कर/बेदर्दों के सामने जायें/जब रोना आवे मुस्कायें/जब दिल टूटे दीप जलायें।´ (नुस्ख़ा हाए वफ़ा, पृ. 676-77) 
यह विडम्बना ही कही जायेगी कि जिस शायर ने अपने वतन से बेइंतिहा मुहब्बत की हो, उसे ग़द्दार कह कर लांछित किया जाये, उसके लिए वतन का मतलब सिर्फ़ नक़्शे पर खिंची हुई लकीरें नहीं था, वे सारे अवाम थे जिनसे मिल कर कोई वतन बनता है। अगर उन अवाम के जम्हूरी हकूक़ छीन लिये जायें, ज़ुल्मोसितम के ख़िलाफ़ लब खोलने की आज़ादी छीन ली जाये, और साम्राज्यवाद की शह पर तानाशाही थोप दी जाये तो कोई भी सच्चा संवेदनशील कवि और अदीब बेचैन हुए बग़ैर कैसे रह सकता है। फ़ैज़ ने अपने वतन से मुहब्बत का इज़हार अपनी शायरी में बार बार किया है, 1980 में बेरुत में निर्वासन में रहते हुए भी `ख़याल सू-ए-वतन रवां है/समंदरों की अयाल थामे/हज़ार वहम-ओ-गुमां संभाले/कई तरह के सवाल थामे।´ (नुस्ख़ा हाए वफ़ा, पृ. 664) वे फि़लिस्तीनी शूरवीरों को अपने वतन पर जान न्योछावर करते देख रहे थे और उन से प्रेरणा लेते हुए अपने निर्वासन के दर्द को भूल जाते थे, `शोपेन का नग़मा बजता है´ नज़्म में वे कहते हैं :
कुछ आज़ादी के मतवाले जां कफ़ पे लिये मैदां में गये
हर सू दुश्मन का नर्ग़ा था, कुछ बच निकले, कुछ खेत रहे
आलम में उनका शोहरा है
शोपेन का नग़मा बजता है
(नुस्ख़ा-हाए-वफ़ा, पृ. 630) 
कुछ आलोचकों ने फ़ैज़ की शायरी को रूपवादी संरचनावादी नज़रिये से देखने की कोशिश करते हुए उनके अर्थों और उनके अंतर्निहित रुझान को विकृत भी किया है। ऐसी ही एक कोशिश जनाब गोपीचंद नारंग की भी मुझे दिखायी पड़ी जिन्होंने फ़ैज़ की एक मशहूर नज़्म, 'दस्ते तहे संग आम्दा´ (जिस पर फ़ैज़ ने अपने एक संकलन का नाम भी रखा) की संरचनावादी व्याख्या करके यह बताया कि यह कै़दख़ाना विचारधारा का भी हो सकता है जिससे मुक्ति की कोशिश शायर कर रहा था, ऐसा अर्थ निकालते हुए उन्होंने प्रगतिशील आंदोलन पर भी लगे हाथ चोट कर दी, और फ़ैज़ को अली सरदार जाफ़री के मुक़ाबले विचारधारा की जकड़बंदी से मुक्त तथा इंडोपर्शियन सौंदर्यशास्त्र का पालन करने वाला शायर बताया और यह भी कहा कि मार्क्सवादी इस सौंदर्यशास्त्र को 'बूर्जुआ´ कहते हैं। वे मानते हैं कि फ़ैज़ की कविता में 'मौन´ और 'अंतराल´ ही उन्हें विचारधारा को अतिक्रमित करने में मदद पहुंचाते हैं। गोपीचंद नारंग को यह नहीं मालूम कि विचारधारा को परोक्ष रखने की सलाह रचनाकारों को सबसे पहले एंगेल्स ने ही दी थी जो मार्क्सवाद के प्रणेता थे। अपनी काव्य परंपरा ही नहीं, पूरे अतीत की संस्कृति का वाहक सर्वहारावर्ग को ही होना है और यह संदेश लेनिन ने और माओ ने भी प्रगतिशील रचनाकारों और संस्कृतिकर्मियों को अपने अपने समय में दिया था जो आज भी प्रासंगिक है। इसलिए अगर फ़ैज़ अपनी कविताओं के लिए इंडोपर्शियन सौंदर्यशास्त्र से काम ले रहे थे या समूचे विश्व के बेहतरीन अदब और कला की रवायत को आगे बढ़ा रहे थे, तो यह उनकी विचारधारा का कोई विचलन नहीं था और न किसी मार्क्सवादी ने इस सौंदर्यशास्त्र को 'बूर्जुआ´ या `सामंती´ कहा। यह तो नारंग साहब की अपनी ही ख़ामख़याली है, बक़ौल फ़ैज़, `वो बात, सारे फ़साने में जिसका ज़िक्र न था / वो बात उन को बहुत नागवार गुज़री है।´ फ़ैज़ के ज़िंदानामा में कविताओं से पहले सज्जाद ज़हीर की एक छोटी टिप्पणी उस संकलन में शामिल है, जिसमें इस शायर और अपने हमदम, अपने दोस्त और क़ैद के संगी साथी की कविताओं में पंरपरा से लिये गये सौंदर्यबोध की तारीफ़ की है, उन्होंने तो इस बोध को 'बूर्जुआ´ या 'सामंती´ नहीं कहा जबकि वे तो प्रगतिशील लेखक संघ की बुनियाद रखने वाले अदीब थे। उन्होंने लिखा:
जहां तक उन इक़दार (मूल्यों) का तआलुक़ है जिनको शायर ने उन में पेश किया है वो तो वही हैं जो उस ज़माने में तमाम तरक़्क़ीपसंद इंसानियत की इक़दार हैं, लेकिन फ़ैज़ ने उन को इतनी ख़ूबी से अपनाया है कि वो न तो हमारी तहज़ीबो तमद्दन की बेहतरीन रवायत से अलग नज़र आती हैं और न शायर की इनफ़रादियत, उसका नर्म, शीरीं और मतरन्नुम अंदाज़-ए-कलाम कहीं भी उनसे जुदा हुआ है।
(नुस्ख़ा हाए वफ़ा, पृ. 198) 
नारंग जैसे बहुत से आलोचक पश्चिम से उधार ली गयी या चोरी की हुई आलोचना पद्धतियों का इस्तेमाल अक्सर प्रगतिशील जनवादी विचार परंपरा पर हमला बोलने के लिए करते हैं और ज़्यादा मग़ज़पच्ची संरचनावाद पर करते हुए वे पाठकों को यह सीख देते हैं कि `फ़ैज़ को किस तरह नहीं पढ़ना चाहिए´ (उनके लेख का यही शीर्षक है) और कैसे पढ़ना चाहिए इसके लिए उन्होंने उनकी एक नज़्म 'दस्ते तहे संग आम्दा´(चट्टान के नीचे दबा हाथ) की संरचनावादी व्याख्या की है। यह बिम्ब कवि ने ग़ालिब से लिया है। ग़ालिब के वक़्त उपनिवेशवादी ईस्ट इंडिया कंपनी की चट्टान के नीचे कलाकार का हाथ दबा था, 1857 के उस वक़्त के वहशी दमन और उत्पीड़न को ग़ालिब ने अपनी आंखों देखा था, फ़ैज़ ने मार्शल लॉ की चट्टान के नीचे दबे हुए तख़्लीक़ी हाथ को देखा था, उन्होंने रचनाकारों की अभिव्यक्ति की आज़ादी पर लगी पाबंदी ही नहीं, दुनिया के कई देशों पर सामराजी दमन के वहशीपन को भी देखा और तमाम वंचितों, वतन बदर किये अवाम और निर्वासन में जी रहे इंसानों का दर्द भी तल्ख़ी से महसूस किया था। लुडमिला वासीलेवा की फ़ैज़ पर लिखी किताब का रिव्यू करते हुए अदीब ख़ालिद ने इस बात को रेखांकित किया है। उन्होंने लिखा है कि फ़ैज़ साहब ने 1982 के एक वक्तव्य में ख़ुद यह कहा था:
एक मुसिन्नफ़ की हैसियत से हालांकि मैं किसी मुल्क का कामकाज नहीं संभालता हूं और न ही मेंरे पास कोई प्रशासनिक ताक़त है, मुझे यह अहसास करने का हक़ ज़रूरहै कि मैं अपने भाई बंधुओं का अभिभावक हूं और मेरे भाई बंधु पूरी दुनिया के अवाम हैं। मेरे तईं अमन, आज़ादी, युद्धबंदी, और एटमी होड़ की मुख़ालिफ़त ही प्रासंगिक हैं। इस विशाल भाईचारे में से मेरे और मेरे दिल के सबसे नज़दीक वे अवाम हैं जो अपमानित, निष्कासित और वंचित हैं, जो ग़रीब, भूखे और परेशान हैं। इसी वजह से मेरा लगाव फि़लिस्तीन, दक्षिण अफ्रीका, नामीबिया, चिले के अवाम और अपने मुल्क के अवाम और मुझ जैसे लोगों से है। 
जिस तरह वे खुद निर्वासन का दर्द झेल रहे थे उसी तरह वतन बदर हुए अनेक फि़लिस्तीनी अवाम और दुनिया के कई मुल्कों में दमन और उत्पीड़न के शिकार भोले भाले लोग उनके स्वाभाविक तौर पर हमराही थे, उनका दर्द भी वे अपनी शायरी में व्यक्त कर रहे थे, कहीं वह दर्द सीधे सीधे कहा गया है तो कहीं वह प्रतीकों और बिम्बों के माध्यम से आया है। लेकिन सबसे बड़ी बात यह है कि वे पस्तहिम्मती नहीं दिखाते, एक उम्मीद हर जगह जताते हैं, ज़ुल्मोसितम के अंधेरे छंटेगे और बेहतर भविष्य की सुबह आयेगी। दस्ते तहे संग की नज़्में वतन बदर होने से पहले की हैं मगर उनमें भी उनकी कै़द की जिंदगी में मिले दर्द की कलात्मक अभिव्यक्ति देखी जा सकती है। भाषायी पैराडाक्स का बेहतरीन इस्तेमाल भी जनाब नारंग को नज़र नहीं आया, विचारधारा का बंधन दिखायी दे गया। नज़्म की पहली दो पंक्तियां उस दर्द का इज़हार करती हैं मगर, उनके बाद दो पंक्तियां उस मायूसी को पैराडाक्स की शक्ल दे देती हैं :
बेज़ार फ़ज़ा, दरपये आज़ार सबा है
यूं है कि हर इक हमदम-ए-देरीना ख़फ़ा है
हां बादाकशो, आया है अब रंग पे मौसम
अब सैर के क़ाबिल रविशे आबोहवा है
(नुस्ख़ा हाए वफ़ा, पृ. 316 ) 

गोपीचंद नारंग इस पूरी नज़्म का एक संरचनावादी पाठ पेश करने का दम भरते हैं और यह घोषणा करते हैं कि यह कविता 'न तो प्रेम कविता है और न राजनीतिक कविता´। मगर जब इस नज़्म के मेटाफ़र व्याख्यायित करने लगते हैं तो उनके सामाजिक-राजनीतिक पक्ष ही उजागर करने पर मजबूर होते हैं। इस पूरी कविता में 'इल्ज़ाम की बरसात´, 'ज़हर हलाहल´, 'ज़ुल्म´, 'जेल´, 'ज़ंजीर´, 'सज़ा´, 'हथकड़ियां´ और अंत में ग़ालिब से लिये हुए बिम्ब, 'गिरफ़्तारी´,`चट्टान के नीचे दबा हाथ´ क्या उस राजनीतिक चेतना के बग़ैर व्याख्यायित किये जा सकते हैं जिसकी वजह से शायर आख़िरी दिनों तक अपने निर्वासन में भी 'अर्ज़े-ए-वतन´ से कहता रहा कि

हम तो मजबूर-ए-वफ़ा हैं, मगर ऐ जान-ए-जहां
अपने उश्शाक़ से ऐसे भी कोई करता है
तेरी महफि़ल को ख़ुदा रक्खे अबद तक क़ायम
हम तो मेहमां हैं घड़ी भर के हमारा क्या है 
(नुस्ख़ा हाए वफ़ा, पृ. 645) 
एक ऐसे शायर की शायरी की संरचनावादी व्याख्या करके उसके अर्थ को विकृत करना उसकी विचारधारा के विरोधियों का एक शगल रहा है जो अपने वतन और दुनिया की उस जनशक्ति को अपनी महबूबा की तरह देखता है जिसकी मुक्ति के लिए वह तड़पता है, और जीवन के अंत तक अपनी विचारधारा से विचलित नहीं होता। संरचनावाद का जप करने से या अल्थ्यूसर और रोलां बार्थ का नाम स्मरण कर लेने से संरचनावादी व्याख्या भी नहीं होती और की जायेगी तो निहायत विकृत और फूहड़ क़िस्म की ही होगी।

कुछ लोगों ने फ़ैज़ के बारे में यह भी कहा कि वे अपनी मार्क्सवादी विचारधारा के प्रति शंकालु हो रहे थे और उनका कमिटमेंट कमज़ोर पड़ रहा था, सोवियत व्यवस्था से उनका मोहभंग हो रहा था। उनका देहांत 1984 में हुआ था, सोवियत संघ का विघटन बाद में हुआ था। ये आरोप मनगढ़ंत ही हैं, इस तरह के आरोप हिंदी में मुक्तिबोध पर भी लगाये गये थे, रचनाओं में इस तरह की दूर की कौड़ी लाना और शायर को लांछित करना प्रतिक्रियावाद की शरारत ही कही जायेगी। ऐसे लोगों से ही वे अपने अंतिम दिनों की एक सुंदर प्रेरणादायक नज़्म, `इधर न देखो´ में कहते हैं :

उधर भी देखो
जो हर्फ़-ए-हक़ की सलीब पर अपना तन सजा कर
जहां से रुख़्सत हुए
और अहले जहां में इस वक़्त तक नबी हैं
(नुस्ख़ा हाए वफ़ा, पृ. 717) 
फ़ैज़ साहब की शायरी की यही तो ख़ूबी है कि वे इश्क़, वतन से मुहब्बत, अपनी इन्क़लाबी विचारधारा, और दुनिया के मेहनतकशों और वंचितों व मज़लूमों के साथ हमदर्दी और अपने निर्वासन के दर्द को इस तरह अपनी शायरी में घुलामिला देते हैं कि उसमें यथार्थ की बहुत सारी परतें कलात्मकता की नयी झलक देती हैं। उनकी एक ग़ज़ल के इस शेर को देखें:
ऐसे नादां भी न थे जां से गुज़रने वाले
नासेहो, पंदगरो राहगुज़र तो देखो
(नुस्ख़ा हाए वफ़ा, पृ. 280 , मंटगोमरी जेल, 4 मार्च 1956) 
उनकी विचारधारा के विरोधी भी उनकी कलात्मक संश्लिष्टता पर मोहित हैं और उन्हें अपनी घटिया आलोचना का शिकार नहीं बना पाते। हम लोगों का प्यारा यह शायर उर्दू में ही नहीं, पूरी दुनिया के अदब में हमेशा हमेशा एक चमकता सितारा रहेगा।





डॉ. चंचल चौहान कृत साभार
देखें-
http://www.chanchalchauhan.blogspot.in/

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