*** रामचंद्र शुक्ल बनाम सुधीश पचौरी

सुधीश पचौरी की राम-धुन


बीसवीं सदी के आख़िरी दशक के सबसे बड़े लिखाड़, फुलफ्लेज्ड विमर्शकार और निर्द्वन्द्व शिल्पकार हैं सुधीश पचौरी। उनके हाथों में या तो जादू है या कोई जादुई कलम, जिससे वे किसी भी मसले, महक़में अथवा हस्ती के विषय में ऐसा शिल्प गढ़ते हैं जिन्हें बाज़ार (यानी विक्रेता और उपभोक्ता) हाथो-हाथ लपक लेता है। यह असाधारण सिद्धि है। ईमानदार लफ़्जों में कहा जाए तो निस्संदेह यह ईष्र्या का विषय है। वस्तुतः उन्होंने एक नयी लेखकीय ज़मीन तोड़ी है जो बंजर और उपेक्षित पड़ी थी। या संभवतः इतिहास में विवादित स्रोतास्विनी सरस्वती को उद्घाटित कर लिया है, जो अब उनकी लेखनी के सहारे निर्बाध गति से बहती चली जा रही है। और तारीफ की बात है कि प्रगतिशीलता (मार्क्सवाद) से ‘कहियत भिन्न न भिन्न’ का संबंध निभाते हैं। इसका कारण संभवतः यह है कि उनकी लेखनी किसी भी मर्यादा में अपना जौहर नहीं दिखा पाती। ज़ाहिर है, एक लेखक के लिए, ख़ास एक प्रोफेशनल लेखन के लिए सिद्धांत से अधिक लेखनी की वफ़ादारी अपेक्षित है।

इस गंभीर भूमिका के साथ उनकी जादुई कलम ने उनसे एक महद् विमर्श करवाया-‘रामचन्द्र शुक्ल की धर्म-भूमि’। महात्मा गाँधी अन्तरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय के प्रकाशन ‘बहुवचन’ (त्रैमासिक) के पहले अंक की पृष्ठ संख्या 283 से 296 तक इस विमर्श का भौतिक-विस्तार है। इसी विमर्श के मद्दे-नज़र कुछ बातें करनी है कि रामचन्द्र ‘शुक्ल’ के विषय में सुधीश ‘पचौरी’ क्या सोचते हैं? कैसा सोचते हैं? और क्यों सोचते हैं? इसकी वजह यह है कि उनकी सूक्ष्मता के कलेवर, गंभीरता के तेवर से जान पड़ता है कि कोई महान् और अद्भुत कार्य कर रहे हैं। हमें उनकी भंगिमा का सम्मान करना चाहिए।

मोटे तौर पर, सुधीश पचौरी अपने इस महद् विमर्श में अपनी जाति की पदावली, पदावली का प्रयोग, प्रयोक्ता, प्रसंग, संदर्भ, प्रतिष्ठा, अर्थवत्ता, आकांक्षा आदि से तौबा कर ‘अपना’ प्रवेश चाहते हैं। प्रवेश की आकांक्षा गलत नहीं कही जा सकती। गौरतलब है, भक्ति साहित्य की आलोचना, प्रत्यालोचना, प्रति-प्रत्यालोचना ही हिन्दी प्रोफेशनलों का हिन्दी की दुनिया में प्रविष्ट होने का, वहाँ प्रतिष्ठित होने का एक मात्र सिंहद्वार है। बात झंडा गाड़ने की है। सुप्रसिद्ध प्रत्यालोचक डॉ.धर्मवीर कबीरदास को लेकर अपने पूर्ववर्तियों को खुली चुनौती दे रहे हैं और उनकी कविता और व्यक्तित्व का दलित-विमर्श की दिशा में अनुकूलन कर रहे हैं। इस प्रकल्प के निमित्त उन्होंने अपने पूर्ववर्तियों को इतना धूर्त और बेईमान बताया कि असुविज्ञ पाठकों को तमाम पूर्ववर्ती आलोचक किसी बड़े षडयंत्र के ‘कार्यकर्ता’-से नज़र आते हैं। फिर भी, डॉ.धर्मवीर एक नया प्लेटफार्म प्रस्तावित करते हैं, जहाँ एक-एक करके कई काउन्टर खुलने लगते हैं। यद्यपि सभी काउन्टर के सेल्समैन भी अलग हैं, इन सेल्समैनों की नीयत भी अलग है, तथापि ये सभी ‘हिन्दी’ में अपना प्रवेश अपनी व्यक्तिगत पहचान के साथ चाहते हैं। सुधीश पचौरी इनमें एक होशियार ‘सेल्समैन’ हैं।

ज़ाहिर है, लिखकर छपना या छपने के लिए प्रपंच रचना पचौरीजी की मंशा नहीं होगी, क्योंकि इतने कम समय में इतना अधिक छप जाना उनका कीर्तिमान ही होगा। गौरतलब है, डॉ.धर्मवीर का ‘कबीर-अनुकूलन’ का ड्राइव उपेक्षित समाज के सजग बौद्धिक की सैद्धांतिक प्रतिक्रिया हो सकती है। प्रथम दृष्ट्या यह संगत जान पड़ती है। लेकिन सुधीशजी ने हिन्दू-विमर्श का चयन किया और प्रतिकूलन की राजनीति चलाई। अपनी अस्मिता को किसी ‘कान्टीनेन्टल’ खोल में छिपाकर वार किया। तो फिर, यहाँ यह जानना अनिवार्य हो जाता है कि सुधीश पचौरी कौन हैं? शुद्ध-बुद्धि या कोई व्यक्ति? या वे अपनी प्रज्ञा में इतने निमग्न रहते हैं उन्हें अपने परिधान (सोश्यल लोकेशन) तक का ध्यान नहीं रहता। इस विमर्श को शुद्ध वस्तुनिष्ठ नहीं माना जा सकता, अतएव इस निमित्त का पक्ष और प्रतिपक्ष जानना ज़रूरी है।

इस आलेख का सबसे बड़ा दुख है, ‘‘साहित्य में धर्म का, उसमें भी हिन्दू धर्म का ऐसा ज़बर्दस्त प्रवेश कराने के बाद भी साहित्य की रामचन्द्र शुक्लीय व्याख्या ‘साम्प्रदायिक’ क्यों नहीं कही गई या कही जाती है, जबकि राजनीति में धर्म की वैसी उपस्थिति को साम्प्रदायिक कहा जाता है?’’ (पृ.286)

विमर्श, कुछ अनाप-शनाप कहने से पूर्व एक शपथ-पत्र, अग्रिम जमानत की मानिंद, संलग्न करता है, ‘‘मैं जानता हूँ कि ऐसा लिखकर मैं सही होने पर शंका कर रहा हूँ। मुझे ‘तजिए ताहि कोटि वैरी सम’ का शिकार होना पड़ सकता है। मैं बेहद छोटा आदमी, इतने बड़े परम्परा पुष्ट और स्वीकृत सत्य के सही होने पर शंका कर रहा हूँ। लेकिन क्या करूँ। बिना शंका के शुक्ल के विमर्श में घुस पाना संभव ही नहीं है। (पृ.286)

इस स्वगत-गर्वोक्ति से यह साफ झलकता है कि पचैरीजी अपने प्रयास पर मंत्र-मुग्ध हैं जो अत्यधिक सम्मान की अपेक्षा से अतिशय विनम्र हो गए हैं और आस-पास के लोगों को जाहिल और डरपोक समझते हैं। ध्यातव्य है कि अपने महत्त्वपूर्ण दुःख में उन्होंने दो सर्वनाम पदों का प्रयोग किया है -ऐसा और वैसी- जिनमें उनकी सारी रणनीति और चतुराई अनुस्यूत है। इसका कारण है। ‘हिन्दू’ पद के इर्द-गिर्द राजनीति करना आज जितना सुगम और सुलभ है, पहले कभी न था। यह एक तथ्य है। इसके साथ दूसरा तथ्य यह भी है कि हिन्दू-संदर्भ पर स्याही पोत कर किसी भी पोथी, यहाँ तक की ‘रामचन्द्र शुक्ल की धर्म-भूमि’ शीर्षक पूर्ण स्वायत्त विमर्श, को भी नहीं समझा जा सकता। इस बोधपरक द्वैध पर विचार करना आवश्यक है। धर्मज्ञ, धर्मवेत्ता, धर्म-विशेषज्ञ, धार्मिक, धर्म-व्यवसायी, धर्म की राजनीति करनेवाला वगैरह, सभी एक नहीं होते, एक तरह के भी नहीं होते। प्रत्युत इन सभी पदों में धर्म का संदर्भ भी समान नहीं होता। हालाँकि रामचन्द्र शुक्ल और उनकी आलोचना इनमें से किसी भी कोटि से संबद्ध नहीं है। किन्तु यह मान लेने में कोई हर्ज़ नहीं है कि ‘‘इसे रामचन्द्र शुक्ल को हिन्दू बनाने की बेवकूफी नहीं कही जा सकती क्योंकि शुक्ल हिन्दू जाति (हिन्दू संदर्भ नहीं) में ही अर्थ पाते हैं। (पृ.286) यह शर्मिन्दा होने का प्रसंग नहीं है।

एकबार पलटकर विचार करना होगा कि क्या यह ‘‘शुक्लजी को ‘हिन्दू’ बनाने की साजिश’’ ही नहीं है? यदि कोई प्रयत्नपूर्वक एक शुक्लजी को हिन्दू-काट का साबित कर लें तो उनके अनुयायियों को अधिक सुभीता से ‘हिन्दू’ साबित किया जा सकता है। पूरा भक्ति साहित्य, उसकी आलोचना, उस पर केंद्रित विमर्श बस झटके में हिन्दू साबित हो जाता है। रामचन्द्र शुक्ल को निशाने पर टिकाने के पीछे एक बड़ी महत्त्वाकांक्षा है। इसमें जोखि़म था तो चतुराई भी थी, लेकिन इससे भी अधिक मौका था। मौकापरस्ती बौद्धिक-जागरूकता है। ध्यान देने की बात है कि लेख तब लिखा जाता है जब केन्द्र में ‘हिन्दूवादी’ सरकार होती है। संभव है, यह महज़ इत्तफ़ाक ही हो।

हिन्दी-जगत के सामान्य अध्येताओं, छात्रों, शोधार्थियों और विशिष्ट विद्वानों की दृष्टि और समझ में भक्तिकालीन साहित्य और उसकी आलोचना हिन्दी-साहित्य-व्यापार-जगत की रीढ़ है। तुलसीदास और रामचन्द्र शुक्ल ‘राम’ की बात करते हैं। इन्हें भारतीय नायक बताते हैं। नायक भगवान भी हो जाता है। भक्ति का प्रसंग भी आ जाता है। माइथोलॉजी आ जाती है। रावण, विभीषण, मंथरा, कैकयी, हनुमान, भरत, जटायु इत्यादि बहुत कुछ आता है - लंका भी, अयोध्या भी। रावण खलनायक है। पौराणिक कथा के अनुसार उसके वध का प्रसंग आता है तो राम का नाम आता है, मुहम्मद या ईसा का नहीं। राम का प्रतिपक्ष न कांग्रेस है, न अंग्रेज और न मुस्लिम। कथा के अनुसार, विभीषण और मंथरा का प्रयोजन रावण वध होने पर भी वे ‘पूजनीय’ की श्रेणी में नहीं हैं। उन चरित्रों के साथ लोक ने न्याय किया है।

यह भी सच है कि हिन्दूवादी राजनीति ‘राम के चरित्र और प्रभाव’ की राजनीति नहीं करती। ‘राम’ कहीं प्रतीक है, चिह्न है तो कहीं एजेण्डा है, औजार है। दोनों में बड़ा गहरा और दो धरातलों का फ़र्क है। दोनों की ‘एडोप्ट’ करने की नीयत में फासला है। दोनों के ‘कल्चरल स्पेस’ में कोई सामंजस्य नहीं है। सुधीश पचौरी ‘राम’ (शब्द राम) को पकड़ने का रणनीतिक यत्न करते हैं ताकि उस राम के ‘रामत्व’ का अपने अप-व्यापार के निमित्त उपयोग किया जा सके। किन्तु ऐसी क्रिस्टलीय समझ अत्यंत क्षणभंगुर होती है जो दूर तक साथ नहीं दे सकती।

सुधीश पचौरी भाजपा की अगुवाई वाली केन्द्र सरकार के कार्यकाल में रामचन्द्र शुक्ल पर हिन्दू होने का अथवा उन्हें हिन्दू सिद्ध करने का विखण्डनवादी मंत्र फूँकते हैं। अपने इस सूक्ष्म कर्मकांड को सफल मानकर अपनी पीठ आप ठोकते हैं। प्रतीत होता है कि वे जल्दी में हैं तथा उनकी नीयत साफ नहीं है। उनके नीयत की खोट एक न्यायिक द्विविधा की शुक्ल में कुछ इस तरह है -
जब यह साबित हो गया कि आचार्य रामचन्द्र शुक्ल हिन्दू सम्प्रदायवादी हैं, तो मैंने या तो एक छद्म हिन्दूवादी को बेनकाब किया है या हिन्दूवादियों की विरासत को और अधिक मजबूत किया है। या तो सेक्युलर पक्ष का भला किया है या हिन्दूवाद को परिपुष्ट किया है।

अपने पक्ष को प्रकट नहीं होने देने की ‘चतुराई’ तो निश्चित रूप से यहाँ की गयी है। बात सामान्य-सी है। विरासतों को हड़पने का उद्यम तो वर्ग विशेष के द्वारा किया जा रहा ही है। स्वामी विवेकानन्द इत्यादि के विषय में देखा जा सकता है। उपर्युक्त शपथ-पत्र में उन्होंने संकेत किया है कि वे इस परिणाम के लिए भी तैयार हैं, जब लोग उन्हें ‘कोटि वैरी सम’ त्याग देंगे। गौरतलब है, सुधीशजी ‘उस’ हिन्दू-स्पेस को विमर्श के लिए चुनते हैं जो अनिर्धारित है, अनियमित है। इसका क्या प्रयोजन है? क्यों पचौरीजी ‘हिन्दूवादी राजनीति’, ‘हिन्दू जाति’, ‘हिन्दू संस्कृति’ वगैरह में भेद नहीं करते हैं? क्या उनकी राय में हिन्दू और हिन्दू महासभा पर्यायवाची पद हैं? अथवा, जब से संघ परिवार ने राजनीति में हाथ आजमाना शुरू किया, तब से राम संबंधी तमाम दस्तावेज़ उसी का हो गया? और उसमें भी इस या उस प्रकार से हिन्दू कहलानेवाले लोग, राम संबंधी अथवा धर्म संबंधी तमाम कार्यकलाप, सब पर उसका अख्तियार हो गया? यह कैसा न्याय है कि हमसे पूछे बिना हमें उस सम्प्रदायवादी राजनीति का हिस्सा मान लिया गया?
और यदि ऐसा हुआ है तो यह बड़ा घोटाला है।

................... ...................................................................आगे

10 comments

वेद रत्न शुक्ल April 14, 2009 at 5:26 AM

आपने सबकुछ स्पष्ट कर दिया... "प्रतीत होता है कि वे जल्दी में हैं तथा उनकी नीयत साफ नहीं है। उनके नीयत की खोट एक न्यायिक द्विविधा की शुक्ल में कुछ इस तरह है ... "
आचार्य शुक्ल के बारे में सुधीश पचौरी जैसा बाजारू और मीडिया लोभी लेखक भला क्या स्थापना दे पायेगा। वैसे, मेरी समझ से आचार्य शुक्ल को गरियाना एक तरह का फैशन भी है।

रवीन्द्र दास April 20, 2009 at 12:48 PM

ved ratn ji,
faishan kahna kuchh kam kahna hai. aise log shakti arjit karne ki tarkeeb ke taur par mahan purvajon ko gali dene ka istemal karte hai.
sudhish pachauri ko paisa chahiye- iske badle vah kuchh bhi karega, yah to sirf path-kupath hai.

जय कौशल

शुक्ल जी ही नहीं किसी भी विषय पर आचार्य सुधीश पचौरी जी ने अब तक क्या स्थापना दी है?वह बेहद प्रोफ़ेशनल लेखक हैं.हिन्दुस्तान, जनसत्ता आदि पत्र-पत्रिकाओं से लेकर मीडिया में ताबड़तोड़ लिखने वाले प्रो. सुधीश पॉपुलर कल्चर के नाम पर कौनसा विमर्श चला रहे हैं, यह वही बता सकते हैं?

Rangnath Singh December 16, 2009 at 3:34 PM

दो पैराग्राफ के बीच स्पेस दे दिया करें तो पाठकों को सहूलियत रहेगी।

Anonymous

sudhish ji ne mere khyal se such ko samne rkha hai or jinhone inka virodh kiya hai unke baap mai dam nahi hai ki vo such ko dekh sake well dwivedi or shukal dono ko hi famous hone se fursat nahi thi or aaj b aise hi log maujood hai jo unko support krte hai khair bhagwan unhe sadbuddhi de

sanjay pathak

kisine apna parichay chhupa kar "baap me dam" nahi hone ka akhyaan kiya hai,jise parhkar yah vishvas pakka ho gayaa k moorkh log bhi bauddhik charcha me bhag lete hai. aisi murkhta ka chehra dekhta to badhaai zaroor deta.
khair, sudhish pachauri ne sach ka chehra dikhaya hai to RAVINDRA DAS ne bhi sach ka chehra dikhaya hai.

उमा October 26, 2010 at 10:57 PM

उमा
आलोचना का वह अंक जो प्रवेशांक था और अशोक वाजपेयी के दौर का था और मलयज की वह किताब 'रामचंद्र शुक्ल' जिस के खंडन पर मंडन फिर प्रतिपादन हुआ है, उसे देखने के साथ बंधु पचौरी जी की किताबें 'कविता का अंत' और 'आलोचना से आगे'भी देखनी जरूरी है। पचौरी जी सचमुच एक विमर्श पैदा करते हैं, जिसमें अभी दो - चार ही हिंदीयन शामिल हो सकते हैं, पर वे मैदान में आएं तो उनकी लंगोट उतर न जाए। उदय प्रकाश सक्षम हैं, पर कुछ अज्ञात प्रेतबाधा है।
दूसरी बात पचौरी जी साहित्यकार की उस बिरादरी से आते हैं जिसकी पौध भारत में नहीं तैयार हुई। अभी वक्त लगेगा उनको समझने में। वैसे आलोचना के लिए तो आप किसी की भी आलोचना कर सकते हैं। पर मनोहर श्याम जोशी की शब्दावली में वह 'आलू चना' ही होगी, और कुछ नहीं।
www.aatmahanta.blogspot.com

उमा October 26, 2010 at 10:58 PM
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उमा October 26, 2010 at 10:58 PM

उमा
आलोचना का वह अंक जो प्रवेशांक था और अशोक वाजपेयी के दौर का था और मलयज की वह किताब 'रामचंद्र शुक्ल' जिस के खंडन पर मंडन फिर प्रतिपादन हुआ है, उसे देखने के साथ बंधु पचौरी जी की किताबें 'कविता का अंत' और 'आलोचना से आगे'भी देखनी जरूरी है। पचौरी जी सचमुच एक विमर्श पैदा करते हैं, जिसमें अभी दो - चार ही हिंदीयन शामिल हो सकते हैं, पर वे मैदान में आएं तो उनकी लंगोट उतर न जाए। उदय प्रकाश सक्षम हैं, पर कुछ अज्ञात प्रेतबाधा है।
दूसरी बात पचौरी जी साहित्यकार की उस बिरादरी से आते हैं जिसकी पौध भारत में नहीं तैयार हुई। अभी वक्त लगेगा उनको समझने में। वैसे आलोचना के लिए तो आप किसी की भी आलोचना कर सकते हैं। पर मनोहर श्याम जोशी की शब्दावली में वह 'आलू चना' ही होगी, और कुछ नहीं।
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