ज बच्चे हमारे सबसे मूल्यवान प्राकृतिक संसाधन हैं। वे समाज और संसार के नियंता हैं। नियंता इस दृष्टि से कि उनके द्वारा उस समाज को आगे बढ़ाया जाना है जिसमें उनका पालन हो रहा है, जिसमे उनका बचपन गुज़र रहा है। मानव जीवन के सबसे स्वतंत्र और स्वच्छंद समय को देखा जाए तो निःसंदेह उसका नाम बचपन ही है किन्तु क्या हम यह कह सकते हैं कि हर बचपन में स्वच्छंदता है? क्या बच्चों को माँ की लोरियाँ नसीब हैं? क्या बचपन को खिलौने मिल रहें है? आज हमारे सामने ये गंभीर सवाल हैं। हर वर्ष 12 जून को हम विश्व बालश्रम निषेध दिवस के रूप में मनाते हैं। यह दिवस उन अबोध नौनिहालों के लिए होता है जो होते तो हमारे लाडलों की तरह ही हैं लेकिन गरीबी की गिरफ़्त में इस कदर जकड़ उठते हैं कि उन्हें बचपन की अमीरी का एहसास ही नही होता है। 2011 की जनगणना के मुताबिक भारत में पच्चीस करोड़ छियानबे लाख ऐसे बच्चे हैं जिनकी उम्र 5 से 11 साल के बीच है। इनमें से करीब 1 करोड़ बच्चे श्रमिक हैं। यदि राज्यों को देखा जाए तो तकरीबन उत्तरप्रदेश में 21 लाख, बिहार में 10 लाख, राजस्थान में 8 लाख बाल मज़दूर हैं। आज देश के लगभग सभी ढाबों, होटलों, पंचर की दुकानों या इस तरह के अन्य कामों में बच्चों को देखा जा सकता है। ऐसा नही है कि इन कामों में सिर्फ लड़के ही श्रमिक हैं बल्कि लड़कियां भी इन कार्यों में लगीं हैं। अधिकतर धनाढ्य घरों में आपको लड़के और लड़कियां आपको काम करते दिख जायेंगे जहाँ उनका उत्पीड़न भी होता है।
बालश्रम के बढ़ने की प्रक्रिया सामाजिक, राजनीतिक एवं आर्थिक होने के साथ-साथ मनोवैज्ञानिक अधिक प्रतीत होती है। यह हमारी मनःस्थिति ही है कि हमने होटलों जैसे अन्य स्थानों पर इनके कार्य को स्वाभाविक मान लिया है। हम बाह्य रूप से इस मुद्दे का कितना ही गम्भीर रूप से विरोध क्यों न करते हों परन्तु आन्तरिक रूप से हम एक तरह से लाचार नजर आते हैं। जो वस्तुएं दैनिक जीवन में हम प्रयोग करते है उनकी श्रमशक्ति के पीछे हमने कभी सिदद्त केसाथ सोचा है कि इसमें किसका हाथ है! यदि उन वस्तुओं को हम प्रयोग करना बंद कर दें जिसमें हमारे भविष्य के मानव निर्माताओं का श्रम जुड़ा हुआ है, तो मनोवैज्ञानिक रूप से इस समस्या से निजात पाया जा सकता है। परन्तु इसके लिए हमें मानसिक रूप से परिपक्व होना पडेगा जबकि वर्तमान स्थितियों को देखकर तो यही लगता है कि अभी इसके लिए हमें सदियों का सफर तय करना पडेगा।अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन ने 130 ऐसी वस्तुओं की सूची बनाई है जिसमें बालश्रम का इस्तेमाल होता है और चौंकाने वाली बात यह है कि इनमें सबसे ज्यादा 20 उत्पाद भारत में बनते हैं जिसमे ताले, माचिस, इत्र, जूते, कांच की चूड़ियां, पटाखे, ईंटें आदि शामिल हैं। बालश्रम के सबसे ज्यादा मामले ग्रामीण भारत से हैं इनमें स्कूलों का अभाव व दूरी भी प्रमुख हैं। आज भी भारत के कई गांवों में विद्यालय नहीं हैं अथवा दूरस्थ स्थानों पर हैं। माता-पिता अपने बच्चों को दूसरे गांवों में पढ़ने हेतु नहीं भेजना चाहते हैं। ऐसे मामलों मे बच्चो के पढ़ाई छोड़ने की दर अधिक हो जाती है। ऐसा देखा गया है कि 6 -14 साल के आयुवर्ग के बच्चों में आधा से थोड़ा कम विद्यालय जा पाते हैं।
संयुक्त राष्ट्र बाल अधिकार की धारा 32 यह कहती है कि उस पर हस्ताक्षर करने वाले देशों को अपने देश से बालश्रम को ख़त्म करना होगा और इसपर आज तक भारत ने हस्ताक्षर नही किये हैं। ऐसा क्यों है यह तो सियासी पंडित जाने! लेकिन व्यवहारिक रूप से पढ़ाई छोड़ने तथा बालश्रम के बीच सीधा सम्बन्ध है। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि बालश्रम के लिए हमारी जाति या वर्ग आधारित सामाजिक व्यवस्था, जिसमे प्रायः निम्नजाति में जन्म लेने वाले बच्चों को मजदूरी विरासत में मिलती है। बाल श्रम की इस पीड़ा को देश के प्रधानमन्त्री से बेहतर कौन समझ सकता है जिनका बचपन ही ट्रेनों में चाय बेंचते हुए गुज़रा है। आज जरूरत है कि रस्मअदायगी को छोड़ इसके लिए ठोस पहल की जाए जिससे बचपन पर अब और जुल्म न होने पाए और सभी बच्चों को उनकी वह अमीरी मिले जिसमें वे पानी का जहाज चलाया करते थे।
* धीरेन्द्र गर्ग
सुल्तानपुर, उत्तरप्रदेश
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