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तुलसीदास की मानवीय करूणा को पल्लवित करने वाला मूल मंत्र है-
‘परहित सरिस धर्म नहीं भाई, परपीड़ा सम नहिं अधमाई’
धर्म-अधर्म की यह नयी परिभाषा तुलसी ने लोकहित के सिद्धांत पर ही निर्मित किया है. उनके लिए मनुष्य का हित सर्वोपरि है, अहित नहीं. इसीलिए तुलसी की कविता ‘सुरसरि सम सब कहं हित होई’ का आदर्श लेकर चलती है. धर्म, साहित्य और राजनीति सबकी एकमात्र कसौटी है सार्वजनिक हित.
‘जासु राज प्रिय प्रजा दुखारी सो नृप अवस नरक अधिकारी’
राजनीति के मानवीय और अमानवीय चरित्र को पहचानने की कसौटी प्रजा का सुख है. यह तुलसी के लोकवादी, लोकमंगलकारी रूप की पहचान है. राम इस लोकहित के संघर्ष में तुलसी के आत्मशक्ति का प्रतीक है. परपीड़ा को अधर्म कहकर तुलसी ने समाज में अन्याय और विषमता को समर्थन देने वालों को अधर्मी कहा है.
भक्ति उन लोगों की प्रेरणा थी जिनका समाज में तिरस्कार था अपमान था. ऐसे में तुलसी परपीड़क पुरोहित धर्म का विरोध करते हैं. पुरोहित वर्ग सामंतों से शक्ति अर्जित करता था, जो सामंती व्यवस्था के उत्पीड़न और अन्याय को बनाए रखने में मददगार होते थे. इसी पृष्ठभूमि में तुलसी ने धर्म को परिभाषित किया और लोकहित को कसौटी के रूप में स्थापित किया. पुरोहितों के संरक्षक भी सामंती राजसत्ता का काबिज़ था, जिससे प्रजा त्रस्त थी. इसीलिए राम राज्य की परिकल्पना तुलसी के लिए अनिवार्य हो गई. ‘साम न दाम न भेद कलि केवल दंड कराल’ यह राज्य सत्ता का दमनकारी रूप था. तुलसी ने ‘भूमि चोर भूप भये’ और ‘बलि मिस रीझे देवता, कर मिस मानव देव’ कहकर राज्यसत्ता के अर्थशास्त्र के अमानवीयता का विश्लेषण किया. तुलसी रावण राज्य के रूप में अपने युग के सामंती व्यवस्था के अत्याचारी रूप का ही विराट चित्र अंकित कर रहे थे. पीड़ित जनता भूखी, निरीह और असमर्थ है _ ‘नहिं कटिपट नहिं पेट अघाहिं’. तुलसी इसी जनसमुदाय के साथ हैं तुलसी के राम उसी जनता के बीच में उनके बंधु हैं.
‘कलि बारहि बार दुकाल परै बिन अन्न दुखी सब लोग मरै’ वाली स्थिति में तुलसी के लिए राम की कथा लोकमंगल का विधान करनेवाली प्रेरणा है.
“मंगल करनि कलि मल हरनि, तुलसी कथा रधुनाथ की”
1 comments
विचार अच्छा लगा।
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