*** तुलसी का लोकमंगल


तुलसीदास की मानवीय करूणा को पल्लवित करने वाला मूल मंत्र है-

‘परहित सरिस धर्म नहीं भाई, परपीड़ा सम नहिं अधमाई’

धर्म-अधर्म की यह नयी परिभाषा तुलसी ने लोकहित के सिद्धांत पर ही निर्मित किया है. उनके लिए मनुष्य का हित सर्वोपरि है, अहित नहीं. इसीलिए तुलसी की कविता ‘सुरसरि सम सब कहं हित होई’ का आदर्श लेकर चलती है. धर्म, साहित्य और राजनीति सबकी एकमात्र कसौटी है सार्वजनिक हित.

‘जासु राज प्रिय प्रजा दुखारी सो नृप अवस नरक अधिकारी’

राजनीति के मानवीय और अमानवीय चरित्र को पहचानने की कसौटी प्रजा का सुख है. यह तुलसी के लोकवादी, लोकमंगलकारी रूप की पहचान है. राम इस लोकहित के संघर्ष में तुलसी के आत्मशक्ति का प्रतीक है. परपीड़ा को अधर्म कहकर तुलसी ने समाज में अन्याय और विषमता को समर्थन देने वालों को अधर्मी कहा है.
भक्ति उन लोगों की प्रेरणा थी जिनका समाज में तिरस्कार था अपमान था. ऐसे में तुलसी परपीड़क पुरोहित धर्म का विरोध करते हैं. पुरोहित वर्ग सामंतों से शक्ति अर्जित करता था, जो सामंती व्यवस्था के उत्पीड़न और अन्याय को बनाए रखने में मददगार होते थे. इसी पृष्ठभूमि में तुलसी ने धर्म को परिभाषित किया और लोकहित को कसौटी के रूप में स्थापित किया. पुरोहितों के संरक्षक भी सामंती राजसत्ता का काबिज़ था, जिससे प्रजा त्रस्त थी. इसीलिए राम राज्य की परिकल्पना तुलसी के लिए अनिवार्य हो गई. ‘साम न दाम न भेद कलि केवल दंड कराल’ यह राज्य सत्ता का दमनकारी रूप था. तुलसी ने ‘भूमि चोर भूप भये’ और ‘बलि मिस रीझे देवता, कर मिस मानव देव’ कहकर राज्यसत्ता के अर्थशास्त्र के अमानवीयता का विश्लेषण किया. तुलसी रावण राज्य के रूप में अपने युग के सामंती व्यवस्था के अत्याचारी रूप का ही विराट चित्र अंकित कर रहे थे. पीड़ित जनता भूखी, निरीह और असमर्थ है _ ‘नहिं कटिपट नहिं पेट अघाहिं’. तुलसी इसी जनसमुदाय के साथ हैं तुलसी के राम उसी जनता के बीच में उनके बंधु हैं.
‘कलि बारहि बार दुकाल परै बिन अन्न दुखी सब लोग मरै’ वाली स्थिति में तुलसी के लिए राम की कथा लोकमंगल का विधान करनेवाली प्रेरणा है.

“मंगल करनि कलि मल हरनि, तुलसी कथा रधुनाथ की”

*** दलित साहित्य की अवधारणा



‘दलित’ शब्द का अर्थ है- जिसका दहन और दमन हुआ है, दबाया गया है, उत्पीड़ित, शोषित, सताया हुआ, गिराया हुआ, उपेक्षित, घृणित, रौंदा हुआ, मसला हुआ, कुचला हुआ, विनिष्ट, मर्दित, पस्त-हिम्मत, हतोत्साहित, वंचित आदि. डॉ. श्यौराज सिंह बेचैन दलित शब्द की व्याख्या करते हुए कहते हैं-‘दलित वह है जिसे भारतीय संविधान ने अनुसूचित जाति का दर्जा दिया है.’ इसी प्रकार कँवल भारतीय का मानना है कि ‘दलित वह है जिस पर अस्पृश्यता का नियम लागू किया गया है. जिसे कठोर और गन्दे कार्य करने के लिए बाध्य किया गया है. जिसे शिक्षा ग्रहण करने और स्वतन्त्र व्यवसाय करने से मना किया गया है और जिस पर सछूतों ने सामाजिक निर्योग्यताओं की संहिता लागू की, वही और वही दलित है, और इसके अन्तर्गत वही जातियाँ आती हैं, जिन्हें अनुसूचित जातियाँ कहा जाता है.’ मोहनदास नैमिशराय ‘दलित’ शब्द को और अधिक विस्तार देते हुए कहते हैं कि दलित शब्द मार्क्स प्रणीत सर्वहारा शब्द के लिए समानार्थी लगता है. लेकिन इन दोनों शब्दों में प्रर्याप्त भेद भी है. दलित की व्याप्ति अधिक है तो सर्वहारा की सीमित. दलित के अन्तर्गत सामाजिक, धार्मिक, आर्थिक, राजनीतिक शोषण का अन्तर्भाव होता है, तो सर्वहारा केवल आर्थिक शोषण तक ही सीमित है. प्रत्येक दलित व्यक्ति सर्वहारा के अन्तर्गत आ सकता है, लेकिन प्रत्येक सर्वहारा को दलित कहने के लिए बाध्य नहीं हो सकते...अर्थात सर्वहारा की सीमाओं में आर्थिक विषमता का शिकार वर्ग आता है, जबकि दलित विशेष तौर पर सामाजिक विषमता का शिकार होता है.’

दलित शब्द व्यापक अर्थबोध की अभिव्यंजना देता है. भारतीय समाज में जिसे अस्पृश्य माना गया वह व्यक्ति ही दलित है. दुर्गम पहाडों, वनों के बीच जीवनयापन करने के लिए बाध्य जनजातियाँ और आदिवासी, जरायमपेशा घोषित जातियाँ सभी इस दायरे में आती हैं. सभी वर्गों की स्त्रियाँ दलित हैं. बहुत कम श्रम-मूल्य पर चौबीसों घंटे काम करने वाले श्रमिक, बँधुआ मजदूर दलित की श्रेणी में आते हैं.

इन तथ्यों से स्पष्ट होता है कि दलित शब्द उस व्यक्ति के लिए प्रयोग किया होता है जो समाज-व्यवस्था के तहत सबसे निचली पायदान पर होता है. वर्ण-व्यवस्था ने जिसे अछूत या अन्त्यज की श्रेणी में रखा. उसका दलन हुआ. शोषण हुआ, इस समूह को ही संविधान में अनुसूचित जातियाँ कहा गया है जो जन्मना अछूत है.

दलित शब्द साहित्य के साथ जुड़कर एक ऐसी साहित्यिक धारा की ओर संकेत करता है, जो मानवीय सरोकारों और संवेदनाओं की ओर संकेत करता है, जो मानवीय सरोकारों और संवेदनाओं की यथार्थवादी अभिव्यक्ति है.

अनेक विद्वानों ने ’दलित साहित्य’ की व्याख्या करते हुए उसे परिभाषित किया है. दलित चिन्तक कंवल भारती की धारणा है कि ‘दलित साहित्य’ से अभिप्राय उस साहित्य से है. जिसमें दलितों ने स्वयं अपनी पीड़ा को रूपायित किया है, अपने जीवन-संघर्ष में दलितों ने जिस यथार्थ को भोगा है, दलित साहित्य उनकी उसी अभिव्यक्ति का साहित्य है. यह कला के लिए कला नहीं, बल्कि जीवन का और जीवन की जिजीविषा का साहित्य है। इसलिए कहना न होगा कि वास्तव में दलितों द्वारा लिखा गया साहित्य ही दलित साहित्य की कोटि में आता है.’

दलित साहित्य जन साहित्य है, यानी मास लिटरेचर MASS LITERATURE. सिर्फ इतना ही नहीं, लिटरेचर ऑफ एक्शन LITERATURE OF ACTION भी है जो मानवीय मूल्यों की भूमिका पर सामन्ती मानसिकता के विरूद्ध आक्रोशजनित संघर्ष और विद्रोह से उपजा है दलित साहित्य.

मराठी कवि नारायण सूर्वे का कहना है कि ‘दलित शब्द की मिली-जुली परिभाषाएँ हैं. इसका अर्थ केवल बौद्ध या पिछड़ी जातियाँ ही नहीं, समाज में जो भी पीड़ित हैं, वे दलित हैं. ईश्वर निष्ठा या शोषण निष्ठा जैसे बन्धनों से आदमी को मुक्त रहना चाहिए. उसका स्वतन्त्र अस्तित्व सहज स्वीकार किया जाना चाहिए. उसके सामाजिक अस्तित्व की धारणा समता, स्वतन्त्रता और विश्वबन्धुत्व के प्रति निष्ठा निर्धारित होनी चाहिए. यही दलित साहित्य का आग्रह है. ‘दलित साहित्य’ संज्ञा मूलतः प्रश्न सूचक है. महार, चमार, माँग, कसाई, भंगी जैसी जातियों की स्थितियों के प्रश्नों पर विचार तथा रचनाओं द्वारा उसे प्रस्तुत करनेवाला साहित्य ही दलित है.

डॉ. सी.बी. भारती की मान्यता है कि ‘नवयुग का व्यापक वैज्ञानिक व यथार्थपरक संवेदनशील साहित्यिक हस्तक्षेप है. जो कुछ भी तर्कसंगत, वैज्ञानिक, परम्पराओं का पूर्वाग्रहों से मुक्त साहित्य सृजन है हम उसे दलित साहित्य के नाम से संज्ञायित करते हैं.’

राजेन्द्र यादव दलित शब्द को काफी व्यापक दायरे में देखते हैं. वे स्त्रियों को भी दलित मानते हैं. पिछड़ी जातियों को भी दलितों में शामिल करते हैं. लेकिन डॉ. श्यौराज सिंह बेचैन उनके इस तर्क से सहमत नहीं हैं. उनका कहना है: ‘इससे साहित्य में सही स्थिति सामने नहीं आती. दलित साहित्य उन अछूतों का साहित्य है जिन्हें सामाजिक स्तर पर सम्मान नहीं मिला. सामाजिक स्तर पर जातिभेद के जो शिकार हुए हैं, उनकी छटपटाहट ही शब्दबद्ध होकर दलित साहित्य बन रही है.’
बाबूराव बागूल ‘दलित’ विशेषण को सम्यक क्रान्ति का नाम मानते हैं जोकि क्रान्ति का साक्षात्कार है.

यही मान्यता अर्जुन डाँगले की भी है. उनका कहना है कि ‘दलित’ शब्द का अर्थ साहित्य के सन्दर्भ में नए अर्थ देता है. दलित यानी शोषित, पीड़ित सामाज, धर्म व अन्य कारणों से जिसका आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक शोषण किया जाता है, वह मनुष्य और वही मनुष्य क्रान्ति कर सकता है. यह दलित साहित्य का विश्वास है.’

इन विवेचनाओं एवं विशेषणों के आधार पर जो तथ्य स्थापित होते हैं, उनसे यह निष्कर्ष निकलता है कि दलित शब्द दबाए गए, शोषित, पीड़ित, प्रताड़ित के अर्थों के साथ जब साहित्य से जुड़ता है तो विरोध और नकार की ओर संकेत करता है. वह नकार या विरोध चाहे व्यवस्था का हो, सामाजिक विसंगतियों या धार्मिक रूढियों, आर्थिक विषमताओं का हो या भाषा प्रान्त के अलगाव का हो या साहित्यिक परम्पराओं, मानदंडों या सौन्दर्यशास्त्र का हो, दलित साहित्य नकार का सहित्य है जो संघर्ष से उपजा है तथा जिसमें समता, स्वतन्त्रता और बन्धुता का भाव है, और वर्ण व्यवस्था से उपजे जातिवाद का विरोध है.

साहित्य के साथ दलित शब्द जुड़ते ही उसकी व्यापकता और अधिक क्रान्ति बोधक हो जाती है. अर्थ और अधिक व्यंजनात्मक होकर साहित्य की भूमिका और सामाजिक उत्तरदायित्वों को और अधिक विश्लेषित करने की क्षमता हासिल कर लेता है. दलित शब्द विरोध की अभिव्यक्ति का प्रतीक बन जाता है. मानवीय संवेदनाओं के सरोकारों से जुड़कर सामाजिक प्रतिबद्धता स्थापित करता है.

दलित साहित्य की जितनी भी परिभाषाएँ हैं, उनका एकमात्र स्वर है. सामाजिक परिवर्तन अम्बेडकरवादी विचार ही उनकी एकमात्र प्रेरणा है. बाबूराव बागूल के शब्दों में कहें, ‘मनुष्य की मुक्ति को स्वीकार करने वाला, मनुष्य को महान माननेवाला, वंश, वर्ण और जाति श्रेष्ठत्व का प्रबल विरोध करनेवाला साहित्य ही दलित साहित्य है.’

आज दलित साहित्य चर्चा के केन्द्र में है. वैसे तो दलित साहित्य के अनेक विद्वान दलित साहित्य का इतिहास बहुत पुराना मानते हैं. सिद्ध कवियों, भक्त कवियों की रचनाओं में दलित चेतना के सूत्र बीज रूप में मानते हैं. ‘सरस्वती’ में प्रकाशित हीरा डोम की कविता को भी कई विद्वान पहली हिन्दी दलित कविता मानतें हैं. अछूतान्द के आन्दोलन और उसकी रचनाओं में सामाजिक उत्पीड़न को स्पष्ट देखा जा सकता है. आजादी के बाद भी अनेक दलित कवि हुए हैं, जिन पर गांधीवाद का प्रभाव ज्यादा है. उनमें हरित जी विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं. माताप्रसाद, मंशाराम विद्रोही आदि ने बहुतायत में दलित लेखन किया है.

लेकिन दलित साहित्य की प्रेरणा जब अम्बेडकर-दर्शन को स्वीकार कर लेते हैं तो कुछ तथ्य स्वयं ही विश्लेषित हो जाते हैं. सातवें दशक में शिक्षित होकर कार्यक्षेत्र में उतरे दलित लेखकों की जद्दोजहद और संघर्ष ने हिन्दी दलित साहित्य की जो भूमि तैयार की उसका नोटिस गैर-दलितों ने काफी विलम्ब से लिया जबकि दलित पत्र-पत्रिकओं में यह गूँज पहले ही अपने पैर जमा चुकी थी. सातवें दशक में ‘निर्णायक भीम’ (सम्पादक आर. कमल, कानपुर) पत्रिका में दलित लेखकों को जो एक मंच प्रदान किया, उसकी बदौलत हिन्दी के कई नाम उभरकर सामने आए. इस बीच अनेक दलित पत्र-पत्रिकाओं का प्रकाशन इस संघर्ष के लिए अनुकूल साबित हुआ. मोहनदास नैमिशराय स्वतन्त्र लेखन एवं पत्रकारिता से जुड़े और अपनी एक विशिष्ट पहचान निर्मित की.

31 जुलाई, 1992 को ‘हंस’ पत्रिका ने ‘दलित चेतना : विशिष्ट सन्दर्भ प्रेमचन्द्र’ विषय पर नई दिल्ली में वार्षिक गोष्ठी का आयोजन किया जिसकी चर्चा लम्बें समय तक चली और अन्त में ‘स्त्री दलित है या नहीं’ पर केन्द्रित हो गई. लेकिन इस चर्चा से यह लाभ जरूर हुआ कि जो दलित साहित्य को अभी तक अनदेखा कर रहे थे, उनका ध्यान इस ओर गया. कुछ विद्वान हिन्दी साहित्य से ढूँढ़-ढूँढ़कर दलित साहित्य की सूचियाँ दिखाने लगे. कल तक जहाँ दलित साहित्य का जिक्र नहीं था, वहाँ प्रेमचन्द्र, नागार्जुन, धूमिल, अमृतलाल नागर, गिरिराज किशोर, यहाँ तक कि तुलसीदास भी दलित कवियों की श्रेणी में आने लगे.

शिवपुरी में कथाकार पुन्नी सिंह ने ‘कमल’ के मंच से दलित साहित्य पर संगोष्ठी कराई, जिसमें नामवर सिंह और राजेन्द्र यादव ने भाग लिया था. उसी वर्ष (1993) अक्टूबर के अखिल भारतीय हिन्दी दलित-लेखक-साहित्य सम्मेलन का आयोजन डॉ. विमल कीर्ति ने नागपुर में किया. हिन्दी दलित साहित्य के लिए एक ऐतिहासिक क्षण था. इस सम्मेलन की अध्यक्षता करने का अवसर मुझे मिला था. डॉ. महीप सिंह, कथाकार, सम्पादक-संचेतना को उद्घाटनकर्ता के तौर पर आमन्त्रित किया गया था. डॉ. महीप सिंह ‘संचेतना’ का मराठी दलित साहित्य (हिन्दी में) विशेषांक प्रकाशित कर चुके थे. दो दिन इस सम्मेलन में डॉ. महीप सिंह ने दलित लेखकों की जद्दोजहद बहुत करीब से देखी थी. दलित लेखकों ने अपनी पूर्व हिन्दी साहित्य पर अनेक सवाल उठाए थे जिन पर आगे चलकर एक सार्थक बहस हुई थी. और इसके रचनात्मक परिणाम भी दिखाई पड़े. प्रेमचन्द्र और उनकी चर्चित कहानी ‘कफन’ पर उठाए गए सवालों पर ‘समकालीन जनमत’ ने बहस चलाई थी. ‘हंस’, ‘कथानक’, ‘इंडिया टुडे’ आदि पत्रिकाओं ने दलित कहानियाँ प्रकाशित कीं. ‘प्रज्ञा साहित्य’, ‘सुमन लिपि’ ‘युद्धरत आम आदमी’ ‘पश्यन्ति’ ने दलित अंक निकाले. नागपुर से ‘अंगत्तर’ त्रैमासिक (डॉ. विमल कीर्ति) का नियमित प्रकाशन शुरू हुआ. राष्ट्रीय सहारा ने ‘हस्तक्षेप’ साप्ताहिक परिशिष्ट के दो अंक निकाले, राजकिशोर ने आज के प्रश्न श्रृंखला में ‘हरिजन से दलित’ पुस्तक का सम्पादन किया.

17 अगस्त,1998 को जनवादी लेखक संघ, नई दिल्ली ने साहित्य अकादमी के सभासागर में दलित आत्मकथा ‘जूठन’ (ओमप्रकश वाल्मीकि) पर संगोष्ठी का आयोजन किया जिसमें दलित, गैर-दलित विद्वानों, लेखकों ने भाग लिया तथा दलित साहित्य पर एक गम्भीर चर्चा हुई.

गत वर्षों में दलित साहित्य आन्दोलन से हिन्दी के प्रतिष्ठित लेखकों और विद्वानों के दृष्टिकोण में बदलाव की प्रक्रिया का जो रूप उभरा है, वह एक उम्मीद जगाता है. इन सबके बाद भी हिन्दी समीक्षकों, साहित्यकारों और पाठकों का एक ऐसा वर्ग है, जो दलित साहित्य पर लगातार आरोप लगाता रहा है. कभी उस पर जातिवादी होने का आरोप तो कभी समाज में विघटन करने का आरोप, तो कभी साहित्य की ‘उत्कृष्टता’ और ‘पवित्रता’ को नष्ट-भष्ट कर देने का आरोप तो कभी नामवरजी को लगता है कि दलित लेखकों की साहित्य में घुसपैठ करके आरक्षण माँगने की नीयत है. इसलिए वे बार-बार यह दोहराते हैं कि साहित्य में आरक्षण नहीं होता. यह वाक्य उछलकर दलित साहित्य को खारिज कर देने की मुहिम चलाई जा रही है जबकि यह सवाल ही बेबुनियाद है, साथ ही पूर्वग्रहों से भरा हुआ भी. कुछ विरोध तो केवल व्यक्तिगत हैं, जैसे नामवरजी के लिए नेतृत्व का संकट। कुछ कारण सामन्ती प्रवृत्तियों के भी हैं, जो दलित साहित्य के लिए संकट उत्पन्न करने का प्रयास करते हैं.


__________________ओमप्रकाश वाल्मीकि, दलित साहित्य का सौन्दर्यशास्त्र से साभार

निराला : सही अध्ययन दृष्टि


मैंने ‘मैं’ —शैली अपनाई
देखा दुखी एक निज भाई
दुख की छाया पड़ी हृदय में मेरे


निराला की मृत्यु (15 अक्टूबर, 1991) के लगभग साढ़े सात वर्ष बाद प्रकाशित उनके अन्तिम काव्य-संग्रह, ‘सांध्य-काकली’ (जनवरी, 1969) के साथ ही उनकी सम्पूर्ण काव्य रचनाओं का प्रकाश-क्रम एक प्रकार से पूरा हो गया है. अभी भी संभव है, इधर-उधर पत्र पत्रिकाओं में प्रकाशित कुछ कविताएँ या उनके मित्रों के पास पड़ी कुछ रचनाएँ संकलनों के आने से रह गयी हों, लेकिन उनकी संख्या ज्यादा नहीं मालूम पड़ती. ‘मतवाला’ के प्रारंभिक अंकों में प्रकाशित कुछ कविताएँ उनके किसी भी संग्रह में उपलब्ध नहीं हैं. इसी प्रकार ‘प्रभा’ (कानपुर) में जून, 1920 में छपी उनकी पहली कविता ‘मातृभूमि’ भी किसी संग्रह में उपलब्ध नहीं है. कलकत्ते से प्रकाशित उनके प्रथम कविता-संग्रह ‘अनामिका’ (पृष्ठ संख्या 40, कविताओं की संख्या—कुल 9 : (1) ‘अध्यात्म फल’ (2) ‘माया’, (3) ‘जलद’, (4) ‘अधिवास’, (5) ‘तुम और मैं’, (6) ‘जुही की कली’, (7) ‘पंचवटी प्रसंग’, (8) ‘सच्चा प्यार’, और (9) ‘लज्जित’. आकार—गुटका; प्रकाशक—नवजादिक लाल, 23 शंकर घोष लेन, कलकत्ता.) की दो कविताएँ—‘सच्चा प्यार’ और लज्जित’ भी उनके काव्य-संग्रह ‘परिमल’ में सम्मिलित होने से रह गयी हैं. शेष सात कविताएँ ‘परिमल’ में शामिल कर ली गयी हैं. इसी प्रकार उनका एक गीत मीरजापुर से प्रकाशित होनेवाली एक पत्रिका में छपा है, जो उनका किसी भी संग्रह में संकलित नहीं है. अपने जीवन के अन्तिम दिनों में निराला अक्सर कविताएँ अपने काव्य-प्रेमियों और श्रद्धालुओं को दे दिया करते थे. इस तरह मुझे लगता है कि पुस्तकाकार प्रकाशित कविताओं से अलग उनकी कुछ कविताएँ रह गयी हैं हालाँकि मूल्याँकन की दृष्टि से इससे कोई विशेष फ़र्क नहीं पड़ता.1

श्रीमती महादेवी वर्मा द्वारा सम्पादित ‘अपरा’ (संग्रहों से चुनी हुई कविताओं का संकलन) को छोड़कर निराला के कुल कविता-संग्रहों की संख्या—13 ठहरती है. प्रकाशन क्रम के अनुसार उनके संग्रह इस प्रकार है—(1) ‘अनामिका’, (2) ‘परिमल’, (3) ‘अनामिका’, (सर्वथा नया संग्रह, जिसमें प्रथम संग्रह ‘अनामिका’ की कोई रचना सम्मिलित नहीं है.) (4) ‘गीतिका’,
1. अब संग्रहों में प्रकाशित होने से रह गयी उनकी 36 कविताओं का एक संकलन ‘असंकलित कविताएँ’ शीर्षक से ‘राजकमल प्रकाशन’, दिल्ली से प्रकाशित हो चुका है. तथा इस संग्रह में भी प्रकाशित होने से रह गयी 7 मौलिक और 3 अनूदित कविताएँ ‘निराला रचनावली’ में प्रकाशित हो गयी हैं.
(5) ‘तुलसीदास, (6) ‘कुकुरमुत्ता’, (7) ‘अणिमा’, (8) ‘बेला’, (9) ‘नये पत्ते’, (10) ‘आराधना’, (11) ‘अर्चना’, (12) ‘गीत गुंज’ तथा (13) ‘सांध्य काकली’. इन सारे संग्रहों में कुल मिलाकर उनकी प्रकाशित मौलिक कविताओं की संख्या 686 ठहरती है.2 इसके अतिरिक्त 10 अनूदित कविताएँ (5 रवीन्द्रनाथ ठाकुर की कविताएँ और पाँच स्वामी विवेकानन्द की) भी हैं जिनमें 7 ‘भारती-भण्डार, इलाहाबाद’ से प्रकाशित ‘अनामिका’ में संग्रहीत हैं और दो ‘नये पत्ते’ तथा एक ‘अणिमा’ में.

इस प्रकार सभी संग्रहों को लेकर निराला के रचना-वर्ष लगभग 40-50 वर्षों के व्यास में फैले हुए हैं. 1916 से लेकर 1961 तक इन्हीं वर्षों की भारतीय सामाजिक, राजनैतिक, आर्थिक स्थितियों तथा निराला के निजी जीवन की विडम्बनाओं के बीच उनकी रचना –प्रक्रिया का विकास हुआ है. अपने युग के प्रमुख कवियों में निराला ही ऐसे कवि हैं, जिनके निजी जीवन और तत्कालीन भारतीय स्थितियों के बीच घहराता हुआ संघात कभी भी बन्द नहीं हुआ है. यह निरन्तर बना रहने वाला संघात ही वह तथ्य है, जिसके सन्दर्भ में उनके कवि की मानसिक बनावट का अध्ययन उचित होगा. इसी से वह सर्वान्तिक, सर्वग्रासी अव्यवस्था जन्म लेती है. जो अनेक आवर्तों, लहरों और अनेक स्तरों पर उनकी काव्य-रचना-प्रक्रिया के विकसित, सम्भ्रमित और प्रतिफलित होने के लिए जिम्मेदार हैं.

उनके समकालीन दूसरे महत्त्वपूर्ण कवि, चाहे वे प्रसाद हों या पन्त या महादेवी, इस संघात को कविता में उतना अर्थवान नहीं बनाते—या यों कहें कि अपने निजी जीवन और काव्य-रचना के बीच दुहरा सामंजस्य स्थापित करने की लगातार कोशिश ये सभी कवि करते रहते हैं. इस तरह का सामंजस्य और समझौता निराला ने अपने कवि जीवन में स्थापित करने का शायद कभी प्रयत्न नहीं किया. फलतः संघात की यह पीड़ा ही अनेक स्तरों और अनेक रूपों में उनकी कविताओं का मूल और बुनियादी स्वर है.

उनका सारा जीवन सांसारिक दृष्टि से असफल, अव्यवस्थित, विश्रृंखलित, अतिशय अव्यावहारिक और दुखद रहा है. आर्थिक विपन्नता इसमें प्रमुख रही है. इस सांसारिक दुखद नियति के आगे हार-जीत के द्वन्द्वपूर्ण मनःस्थिति और उसका अन्तस्ताप ही निराला की रचनात्मकता की मुख्य दिशा बन गयी है. रचना के आन्तरिक क्षणों के फैलाव में गम्भीर-अध्ययन चिन्तन-मनन से निकले हुए निष्कर्षों को बार-बार यह अन्तस्ताप तीखा बनाता है. संसार के महान कलाकरों के जीवन में जितनी विडम्बनाएँ आयी हैं, निराला उसी तरह की, बल्कि उससे भी गहरी, आक्रामक और सांघातिक विडम्बनाओं के शिकार रहे हैं. वैसे कोई भी रचनाकार जीवन के इस तरह के गर्हित, सन्तापकारी रूपों द्वारा ग्रस लेने के लिए अपने को खुला नहीं छोड़ देता और न ही इसे एक सिद्धान्त के रूप में अपने कलाकार-जीवन में ग्रहण करता है. निराला ने भी वरदान समझ कर नहीं, बल्कि एक विवश, कटु यथार्थ की तरह ही इन विडम्बनाओं को वाणी दी है. इसीलिए जहाँ इस तरह की स्थितियाँ साधारण मनुष्य के जीवन को एक अकर्मण्यता, असहायता और पराङ्मुखता की ओर अग्रसर करती है, वहीं एक सच्चा और मौलिक रचनाकार इसे अनुभव-संचय और उदात्त-भाव का साधन बनाता है. निराला के साथ भी यही और ऐसा ही हुआ है. जब वे कहते हैं :
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2. निराला रचनावली’ के हिसाब से अब उनकी कुल मौलिक 736 और अनूदित 17 होती हैं.
(1) मरा हुआ हूँ हजार मरण
पाई तव चरण-शरण

(2) दुख ही जीवन की कथा रही
क्या कहूँ आज जो नहीं कही

(3) व्यर्थ प्रार्थना जैसे अब है
पंजर-पिंजर कर से.

(4) जनता के हृदय जिया
जीवन-विष विषम लिया

(5) बाहर मैं कर दिया गया हूँ
भीतर पर भर दिया गया हूँ

तो रचना और काव्य के मुखर अर्थ से मौन की उसी सनातन भाषा तक पहुंचने का संकेत देते हैं, जो अन्ततः सारी महान और सार्वभौमिक कविता का लक्ष्य है और जहाँ पहुँचकर कविता, या कोई भी रचना, एक सार्वभौमिक वास्तविकता और मनुष्य की आदिम नियति का गूढ़तम संकेत बन जाती है.

लेकिन निराला की काव्य-रचना के विकास को समझने और किसी निष्कर्ष पर पहुंचने के पहले उनकी रचना-प्रक्रिया की आंतरिक संगति और उसकी यथार्थताओं से परिचित होना बहुत जरूरी है. इस निबन्ध के प्रारम्भ में निराला की प्रकाशित कविताओं के आँकड़े प्रस्तुत करने के पीछे मेरा उद्देश्य यही है. उनके सारे काव्य-संग्रहों में संकलित कविताओं की विषय-वस्तु, शिल्प और उनकी भाषिक-संरचना का अध्ययन करने के बाद मैं इस निष्कर्ष पर पहुंचा हँ कि निराला की काव्य-रचना-प्रक्रिया के विकास को काल-क्रम के आधार पर समझा और विश्लेषित नहीं किया जा सकता है. ऐसा करना, बल्कि एक प्रकार से बहुत बड़ी भूल होगी. इसकी जगह उनकी रचना-प्रक्रिया को, रचना-प्रक्रिया के अनेक स्तरों के हर समय, साथ-साथ क्रियाशील रहने के रूप में यदि देखा जाय तो उनकी कविता और उनके काव्य-व्यक्तित्व को समझने में ज्यादा सुविधा होगी. अपने समकालीनों में निराला ही एक ऐसे कवि हैं, जिनके विराट, सर्वग्रासी प्रतिभाशाली व्यक्तित्व में काव्य-रचना-प्रक्रिया के अनेक स्तर हर समय साथ-साथ क्रियाशील रहे हैं. छायावादी काव्य-सिद्धांत तो निराला के कालजयी कवि-व्यक्तित्व के एक ही पहलू में समा जाते हैं. उनकी काव्य रचना का बहुत बड़ा भाग ऐसा है, जो किसी भी काव्य-सिद्धान्त के घेरे में नहीं अँटता. या तो वे अतिशय नवीन और विद्रोही दिखते हैं, या अतिशय पुरातन। उनके काव्य-संग्रहों के प्रकाशन-समय के आधार पर उनके काव्य-विकास को रेखांकित करना पूर्णतया असम्भव है.

उनके पहले संग्रह से लेकर अन्तिम संग्रह तक, प्रत्येक में रचना प्रक्रिया के अनेक क्रियाशील स्तरों का प्रतिफलन समान रूप से साथ-साथ दिखायी देता है. चाहे वह खिन्नता, उदासी, अवसाद, सुख निराशा और मृत्यु-भय का अन्तःसंगीत हो; या लम्बी कथात्मक या आत्म-चरितात्मक कविताएँ हों; ऋतु गीत हों या प्रार्थनाएँ हों—उनके प्रत्येक संग्रह में सभी तरह की रचनाएँ समान रूप से मिल जाती हैं.

निराला का काव्य-व्यक्तित्व इतना विराट, गहन, गम्भीर और कुछ ऐसा सीमाहीन लगता है, जिसके अन्दर बाहरी विचार और सिद्धान्त और अध्ययन-रेखाएँ तिरोहित हो जाती है और फिर जो कुछ भी रच कर बाहर आता है, वह सिर्फ ‘निराला’ होते हैं. सामयिकता उनके व्यक्तित्व में घुल कर एक निजी और मौलिक रूप धारण करती है. रचना-प्रक्रिया के ये कई-कई आवर्त लगातार हर समय उनके काव्य-व्यक्तित्व को आन्दोलित करते रहते हैं और अनेक रंगों, ध्वनियों और अर्थों से भरी अनेक छवियों वाली कविताएँ लगातार वे रचते चलते हैं. काल-क्रम के आधार पर एक ही समय के आस-पास रची गयी भिन-भिन्न ढंग की इन कविताओं में कोई तारतम्य और संगति बिठाना विचित्र लगता है.

इसीलिए संभवतः निराला ने अपने काव्य-संग्रहों के प्रकाशन के समय कविताओं का चयन (अगर इसे चयन कहा जा सकता है तो) करते समय कविताओं को कहीं भी विषय-वस्तु शिल्प या भाषिक-संरचना की एक रूपता के आधार पर विभाजित करने की ओर ध्यान भी नहीं दिया है, बल्कि अपने कवि-व्यक्तित्व के अनेक रचना-स्तरों को ज्यों-का-त्यों सुरक्षित रखा है. यहाँ तक कि ‘गीतिका’ में भी, जो संगीत और गायन-पक्ष को विशेष दृष्टि में रख कर लिखे गये गीतों का संग्रह है, इस तरह के अनेक रचना-स्तर गीतों के बन्द में सुरक्षित हैं. ‘तुलसीदास’ और ‘कुकुरमुत्ता’, इन दो को छोड़ कर शेष सारे संग्रहों से मैं इस तरह की अनेक-रंगी, अनेक रचना-स्तरों की कविताएँ उदाहरण के रूप में रख सकता हूँ.

संसार की किसी भी भाषा में ऐसे कवि बहुत कम होंगे, जो रचना-स्तरों के अनेक रूपों को साथ-साथ वहन कर सकें और लगातार अनेक मुखी अर्थों वाली कविताएँ रचने में समर्थ हों. इसका प्रमुख कारण यही था कि निराला ने जीवन को एक ही साथ अनेक स्तरों पर जिया. शायद जीवन और काव्य-रचना में एक ही साथ संघर्ष और संघात इतने सारे ‘फ्रण्ट’ खोलने, लगातार लड़ते रहने और रचते रहने की मानसिक और शारीरिक थकान को समझने के बाद ही उनके मानसिक असन्तुलन को समझा जा सकता है और तब यह कोई ऐसी अजूबा स्थिति नहीं लगती; क्योंकि शरीर और मस्तिक की एक सीमा तो होती ही है और निराला ने अपने असीम शारीरिक और मानसिक क्षमता के साथ इस सीमा का, चाहे जाने या अनजाने, लगातार उल्लंघन किया. ऐसा करना एक तरह की मानसिक समझौता परस्ती को प्रश्रय देना था जो निराला जैसे गहन सम्वेदनशील, अहंकारी उदात्त, अव्यवहारिक, भावुक और निपट मानवीय व्यक्ति के लिए असम्भव था.
जिस ‘नरक-यात्रा’ की चर्चा डॉ. रामविलास शर्मा के जीवन के विषय के एक समय-विशेष में करते हैं, दरअसल वह नरक-यात्रा तो उनके जीवन में सर्वत्र फैली हुई है. उसके अनेक आवर्त हैं, अनेक आरोह-अवरोह हैं. उसमें ऐसी खिड़कियाँ भी हैं, जहाँ से ‘फागुन की आभा’ और ‘बादलों की छवि’ रह-रह कर झलक मारती है. उस नरक को ही निराला अपराजेय मन से रचना के असाधारण सौन्दर्य तक ले जाते हैं. जीवन और जगत के इसी गहरे अनुभव से सिंचित रचना का वह असाधारण सौन्दर्य ही इन पंक्तियों में अभिव्यक्त हुआ है :
मैं रहूँगा न गृह के भीतर
जीवन में रे मृत्यु के विवर

मृत्यु के इसी विवर से, इसी नरकीय यन्त्रणा से मुक्ति के प्रयास में, शुद्ध किरण की खोज में विमल आलिंगन कर वायु का स्रोत जानने के लिए वे बार-बार नरक की इस खिड़की से झाँकते हुए अपनी स्तब्धता का जिक्र करते हैं :

असात्चल रवि, जल छलछल छवि
स्तब्ध विश्व कवि, जीवन उन्मन।

धीरे-धीरे यह नरक-यात्रा एक विशाल, अनन्त रचना-यात्रा के रूप में परिवर्तित होती चलती है. उनकी इस रचना यात्रा की एकतानता और अनेक मुखता से अलग उन्हें उनके रचना-वर्षों के विशिष्ट खण्डों में बाँट कर उनकी कविताओं की व्याख्या के प्रति सही अध्ययन-दृष्टि नहीं अपनायी जा सकती.

रचना-स्तरों के अनेक क्रियाशील रूप उनके प्रथम कविता-संग्रह ‘अनामिका’ की 9 कविताओं में ही मिल जाते हैं. विषय-वस्तु, शिल्प और भाषिक-संरचना—किसी भी दृष्टि से उनमें समान रूप से कोई एकरूपता नहीं है. ‘जलद’ कविता जहाँ प्रारम्भ से ही वर्षा-ऋतु के प्रति उनकी गहरी रुझान का पहला परिचय देती है, वहीं छन्द-संयोजन और भाषिक-संरचना की दृष्टि से बिलकुल सरल है. यहाँ तक कि उसमें अँग्रेजी शब्दों का खुला प्रयोग निराला ने किया है। ‘ग्रेड’ और ‘डिगरी’ जैसे आकाव्यात्मक शब्दों का प्रयोग निराला ने किया है. ‘तलाश्रित’, ‘ऊर्ध्वंग’ से लेकर ‘होशियारों, ‘बकाया’, ‘बैठाल’ जैसे शब्दों का प्रयोग या प्रयोग का घाल-मेल इस प्रारम्भिक कविता में निराला ने किया है.
प्रारम्भ से ही निराला हिन्दी कविता के लिए एक नयी भाषा की खोज में जाने-अनजाने रत दिखाई देते हैं. शायद कालिदास और रवीन्द्रनाथ की भाषा में ‘श-ण-ल-व’ का विरोध करते हुए जहाँ अपनी भाषा को उन्होंने हिन्दी की मूल प्रकृति के निकट कहा है, वे प्रारम्भ से ही उसी भाषा, छन्द और कथन-भंगिमा की खोज में लगे हैं. अपनी कविताओं का विरोध होते देखकर उन्होंने इस नासमझी के प्रति दुखी होकर यह कहा कि ‘ऐसा इसलिए हो रहा है कि मैंने सदा हिन्दी का मुँह देखा है.’

अपनी प्रकृति, सार्वजनीन मौलिकता और रचना-दृष्टि के प्रति वे इतने सचेत और सजग हैं कि प्रतिद्वन्द्वी और चुनौती देने वालों में उन्हें कालिदास और रवीन्द्रनाथ ही लगते हैं. ‘जलद’ कविता की भाषा-संरचना की इस तात्विक विशिष्टता के अलावा इस कविता में ‘बादल’ के जिस रूप को उन्होंने चित्रित किया है—उसी का अनेक-मुखी विकास ही आगे चल कर उनके ‘बादल-राग’ और वर्षा सम्बन्धी अन्य कविताओं में हुआ है। यहाँ भी ‘धरती माँ को हरा वसन पहनाने वाले के रूप में अन्ततः उन्होंने ‘जलद’ को देखा और आगे चलकर उसे फिर ‘ये मेरे अपने सपने’ और ‘ऐ जीवन के पारावार’ कह कर सम्बोधित करते हैं. इसी तरह ‘आध्यात्म फल’, ‘तुम और मैं, तथा ‘माया’ कविताओं की सम्वेदना दार्शनिक जमीन का स्पर्श करते हुए भी विभिन्न भाषिक संरचना के माध्यम से अभिव्यक्त हुई है. ‘आध्यात्म फल’ की भाषा और कथन भंगिमा एक गहरे व्यंग्य की अनुभूति लिये हुए, जब कि ‘माया’ और ‘तुम और मैं’ संस्कृत की ध्वनि-लहरियों से युक्त एक नयी-भाषिक-संरचना का आभास, देती हैं. ‘अधिवास’ अपनी ही आध्यात्मिक सिद्धि और ‘परमपद लाभ’ (अपने एक प्रारम्भिक पत्र में पं. महावीर प्रसाद द्विवेदी को लिखते हुए निराला ने अपना पूरा परिचय देते हुए लिखा है, ‘जीवन का उद्देश्य बचपन से ही परमपद लाभ’.) की आकाक्षाओं वाली काव्य-रचना से पृथक जन-सामान्य के संस्पर्श की एक शक्तिशाली उद्घोषणा है. कविता को उसकी अभिजात सम्वेदना से मुक्त करके उसे एक नयी ज़मीन देने को निराला अपनी निजी काव्यात्मक उपलब्धि मानते हुए कहते हैं :

मैंने ‘मैं’ – शैली अपनाई
देखा दुखी एक निज भाई
दुख की छाया पड़ी हृदय में मेरे
झट उमड़ वेदना आई

हृदय में पड़ी दुख की छाया उन्हें बार-बार अपनी ही रचनात्मक समृद्धि को ध्वस्त करके सम्वेदना और भाषिक-संरचना, दोनों धरातलों पर अपने ‘दुखी भाई’ के निकट जाने को प्रेरित करती है. निराला के काव्य में आया हुआ सर्वसाधारण के प्रति यह अगाध प्रेम तथा कथित प्रगतिवाद की देन नहीं है. यह कविता उनके प्रारम्भिक दौर की कविता है, जब हिन्दी में प्रगतिवाद का कहीं नामोंनिशान भी नहीं था. सम्वेदना की अनेक परतें सदा उनकी रचना के साथ-साथ खुलती रही हैं. कविताओं को उनके परम्परागत आभिजात्य से मुक्ति दिलाने का प्रयास लगातार निराला अपनी रचनाओं के द्वारा शुरू से ही करते हुए दिखाई देते हैं. इसीलिए जहाँ एक ओर ‘जुही की कली’ लिखकर वे भाषा और सम्वेदना के दूसरे ही स्वरारोह की सृष्टि करते हैं, वहीं ‘अपने दुखी भाई’ को देखकर वे ‘मैं’ की सर्वथा नयी, अप्रयुक्त शैली और रचना-दृष्टि सगर्व अपनाते हैं. साधारण जन के दुख से उनके हृदय में पड़ी इसी दुख की छाया का विकास आगे चल कर ‘विधवा’ , ‘भिक्षुक’, ‘तोड़ती पत्थर’, ‘दीन’, ‘खजोहरा’, ‘रानी और कानी’, ‘कुकुरमुत्ता’, ‘महगू मँहगा रहा’ और ‘मानव जहाँ बैल-घोड़ा है’ जैसी कविताओं में हुआ है. दुख की इस पड़ी हुई छाया की ही अन्तिम परिणति इन पंक्तियों में होती है:

जनता के हृदय जिया
जीवन-विष विषम लिया

‘जूही की कली’ एक दूसरी तरह की सौन्दर्य-रचना का प्रतिमान स्थापित करती है. यहाँ वह खिन्नता का स्वर नहीं है, जो निराला में प्रारंभ से ही अपने प्रखर रूप में पाया जाता है. अपने ढंग से यह कविता रवीन्द्रनाथ की कविताओं की चुनौतियों से उपजी हुई है. इसकी सारी भाषिक-संरचना अत्यन्त गूढ़ है. एक सम्पूर्ण मानवीय व्यापार का प्राकृतिक पर आरोपण है. यद्यपि छन्द-प्रयोग की दृष्टि से यह स्वच्छन्द-छन्द की कविता है, लेकिन उसका पूरा भावावेग गीतात्मकता से पूर्ण है.
__________दूधनाथ सिंह, निराला आत्महन्ता आस्था से साभार

वर्तमान की पहचान समझ और संवेदना (हरिशंकर परसाई के संदर्भ में)

परसाई वर्तमान के रचनाकार हैं। इस कथन का मतलब केवल यह नहीं है कि उनके लेखन में आजादी के बाद की स्थितियों का चित्रण है। वर्तमानता उनकी रचनाधर्मिता के केन्द्र में है, वह रचनात्मक मूल्य बन गयी है। परसाई के शब्दों में:-
‘‘शाश्वत लिखने वाले तुरन्त मुत्यु को प्राप्त होते हैं। अपना लिखा जो रोज़ मरता देखते हैं वही अमर होते हैं वही अमर होते हैं-जो अपने युग के प्रति ईमानदार नहीं है वह अनंतकाल के प्रति क्या ईमानदार होगा।’’
शाश्वत अरूप है, सरूप-और सबसे ज्यादा सरूप वर्तमान है। लेखक सरूप वर्तमान से प्रभावित न हो, और जिसे नहीं देख रहा, उसी से प्रभावित होने का प्रयास करे या ढोंग रचे तो वह अपनी समझ में शाश्वत लिखेगा। विभिन्न युगों के ‘वर्तमानों’ के योग के आधार पर हम शाश्वत की कल्पना करते हैं। इसी को निराला कहते थे-हम नित्य नवीनता में ही सनातनता पाते हैं।

काल को भूत, भविष्य, वर्तमान में बाँट दिया गया है, समझने-समझने की सुविधा के लिए भूत और भविष्य को वर्तमान जोड़ता और काटता है। भूत वर्तमान में प्रतिफलित होता है-वर्तमान में भूत निहित है। वर्तमान की सक्रियता भविष्य का निर्माण करती है। वर्तमान का सर्वाधिक महत्त्व इस बात में है कि वह सक्रियता से जुड़ा है। हम वर्तमान में ही कार्यरत होते हैं। अतीत, में हम नहीं हमारे पूर्वज कार्यरत थे। भविष्य में आने वाली पीढ़ियाँ उद्योग करेंगी। भविष्य में काम करने की हम योजना ही बना सकते हैं। काल को कर्म में हम केवल वर्तमान में ढाल सकते हैं। यह बात मुक्तबोध की एक पंक्ति- ‘पीतालोक प्रसार के काल गल रहा है’ से स्पष्ट होती है। ‘अँधेरे में’ कविता का वाचक निष्क्रिय है। इसलिए काल गल रहा है। पीत आलोक निष्क्रियता का घोतक है। रक्त आलोक सकर्मकता का।

हरिशंकर परसाई वर्तमानता के रचनाकार हैं। उनका साहित्य बीसवीं सदी के उत्तरार्ध के भारत का है। यह साहित्य इस काल के साहित्य की पहचान है। परसाई ने वर्तमान समस्याओं को ही अपने लेखन का आधार बनाया है। आधुनिक काल के किसी अन्य रचनाकार ने वर्तमान समस्याओं तक ही अपने को इतना व्यक्त नहीं रखा है। वर्तमान समस्याओं को लिखते समय रचनाकार उन्हीं समस्याओं पर कलम चलाते हैं जिस पर लोगों का ध्यान केंद्रित हो चुका है। ये सीमित वर्तमान के रचनाकार हैं। वर्तमान के मामूलीपन या ‘रोजमर्रा’ को रचना में इतना प्रतिष्ठित पहले, किसी और ने नहीं किया था। यह प्रगतिशीलता का विकास है। जीवन की सामान्य बातों को रचना में स्थान देकर भारतेंदु ने हिंदी साहित्य में आधुनिकता का प्रवर्तन किया था। वह आधुनिकता प्रगतिशीलता भी थी। बालमुकुंद गुप्त द्वारा लिखित शिवशंभु के चिट्ठे में हम इसी मामूलीपन की प्रतिष्ठा पाते हैं। किंतु स्वातंत्र्योत्तर भारत की विशिष्ट स्थितियों में इस रोजमर्रा मामूलीपन के महत्त्व में गुणात्मक परिवर्तन हो गया है। हिंदी में यह मामूलीपन कविता में नागार्जुन और गद्य में हरिशंकर परसाई के यहाँ सबसे ज्यादा दिखलाई पड़ा है। कविता में सामान्य स्थितियों को आधार बनाकर रचना करने की दीर्घ परंपरा लोक साहित्य में रही है, नागार्जुन ने उसका काफी सहारा लिया। परसाई के पूर्वज इस दृष्टि से केवल बालमुकुंद गुप्त हैं। उनका गद्य विधा की दृष्टि से अत्यंत प्रयोगपूर्ण और नवीन है। वह बालमुकुंद गुप्त के ‘शिवशंभु के चिट्ठे’ से भी भिन्न है। हरिशंकर परसाई के निबंधों में भंग की तरंग की भूमिका नहीं। वे छदम को उद्घाटित कर देने वाली समझ के साथ रचना में प्रवृत्त होते हैं। मदहोश होकर होश की बातें करने के लिए भँगेड़ी की भूमिका में उतरते थे। जबकि परसाई की रचना में सतर्क बोध आद्यंत साथ रहता है।

स्वातंत्र्योत्तर भारत की स्थिति जितनी ज़टिल, छदमपूर्ण है, परसाई की दृष्टि भी उतनी ही काइयाँ और भेदक। यहाँ ईमानदारी तो है किंतु वह मध्यकालीन वीरोचित तेवर से रहित है। परसाई की ईमानदारी आदर्श से प्रेरित है किंतु आदर्शवादी नहीं। वह भी जटिल, काइयाँ, छदम को भेदने में सक्रिय और नाटकीय है। व्यंग्यकार परसाई की नैतिकता मानवीय सिद्धांतों पर आधारित है किंतु उसकी रणनीति नई है। वह अनैतिक शक्तियों के दांवपेंच से परिचित और उन्हें मात देने में माहिर और शातिर है। उन्हें पढ़ते हुए ब्रेख़्त की याद आती है।

परसाई की रचना को आज़ादी के बाद की स्थितियों से अलग करके देखा ही नहीं जा सकता। आज़ादी के बाद की स्थितियाँ जैसी घटित हुईं वैसी न होतीं तो परसाई का लेखन भी वैसा न होता जैसा कि है। यह बात कमोवेश तो स्वातंत्र्योत्तर भारत के सभी प्रसिद्ध रचनाकारों के बारे में कही जा सकती है, किंतु सबसे ज्यादा यह लागू होती है परसाई के बारे में। साहित्येतर स्थितियाँ रचनात्मक अनिवार्यता निर्मित करती हैं। महान् साहित्य अनिवार्य होता है। परसाई के लेखन में रोजमर्रा का मामूलीपन अनिवार्य भी बन गया है। उनके प्रचुर और पर्याप्त लेखन का आधार अति-सामान्य, परिचित, वर्तमानकालिक, प्रत्यक्ष जीवन जगत् है लेकिन उसका कोई अंश फालतू या महत्त्वहीन नहीं। भाव-परिधि का यह विस्तार अभिभूतकारी और आश्चर्य जनक है पढ़ते समय वे जितना सजग लगते हैं विचार करने पर उतना ही जटिल।

परसाई के निबंधों का आकार बहुत छोटा है। प्रायः दो-तीन पृष्ठों का उन्हें अलग-अगल पढ़ने पर कौतूहल, हास्य, व्यंग्य, घृणा, आक्रोश सब होता है। लेकिन निबंध पढ़ने पर एक झटका जरूर लगता है। कुछ ऐसा हो रहा है जो विक्षुब्ध कर जाता है। विक्षुब्ध करने का गुण ही परसाई को रचनाकार बनाता है-गंभीर रचनाकार। गंभीर रचनाकार मानवतावादी होगा, उसकी रचना का प्रधान तत्त्व करुणा होगा। लेकिन इन निबंधों को आप एक साथ पढ़ें तो ये परस्पर-संबद्ध लगेंगे। पूरा निबंध-साहित्य एक वृहत् युग-गाथा है। व्यंग्य निबंधों का यह महाकाव्यात्मक प्रभाव हिंदी की नई उपलब्धि है। वर्तमानता, मामूलीपन, की अनिवार्यता, महत्ता इन सबके साथ परसाई के निबंधों के शिल्प और विधा के नएपन का अन्योन्यासित सम्बन्ध है।

स्वातंत्र्योत्तर भारत का यथार्थ-बनता बिग़ड़ता हुआ सक्रिय यथार्थ परसाई के निबंधों में विचित्र है। इस सक्रियता, विकासमानता को रेखांकित करने के लिए ही उसके वास्ते ‘वर्तमानता’ शब्द का प्रयोग किया जा रहा है। यथार्थ असीम है। लेखन-विषय के रूप में वर्तमानता कभी चुकेगी नहीं। वर्तमानता निरंतर विकासनशील है। वर्तमान अपनी अंतस्संबंधता में पहचाना जाता है। हमारे वर्तमान में कितनी समस्याएँ हैं, इन समस्याओं की कितनी पर्तें हैं ! उनके ऐतिहासिक आर्थिक, सांस्कृतिक कारण और दबाव हैं ? विभिन्न वर्गों और वर्गों ही नहीं, एक-एक व्यक्ति पर इन सब का अलग-अलग, समान और असामान्य प्रभाव है। असंख्य व्यक्तियों द्वारा साक्षात अनुभूत किया जाता है। अखंड यानी परस्परसंबंधित है। मार्क्स ने कहा था-प्रत्येक वस्तु अन्य प्रत्येक वस्तु से जुड़ी है। वर्तमानता की अखंडता कोई अरूप अलौकिक तत्त्व नहीं। वह हमारे सामने है, हम पर चोट करती हुई, हमें क्षत-विक्षत, आहत, मुदित, पुलकित करती हुई- हमें ललकारती हुई। हमारे हमारे साथ देशवासी झेल रहे हैं। संस्कृति, अतीत-गौरव, पुराण-गाथा, मिथक सब वर्तमान पर घटित हो रहे हैं। वर्तमान का चक्र उन्हें काट-छाँट, खराद रहा है। क्रियाओं प्रतिक्रियाओं से खुद वर्तमान भी बन रहा है और मिटता हुआ भविष्य में ढल भी रहा है। इन मूल्यों की कसौटी यह है कि समाज और व्यक्ति के ऐतिहासिक वर्तमान में वे कितने सहायक या बाधक हैं। सत्ता, समाज, और व्यक्ति की घोषणाएँ वस्तुतः क्या हैं ? कथनी की करनी क्या है ?

हमारे देश में मर्यादा पुरुषोत्तम राम भारतीय महाकाव्यों के आदर्श उदात्त नायक हैं। महाकवि तुलसीदास ने वर्षा ऋतु में उनके विरह का वर्णन किया। राम ने वर्षा ऋतु में बादलों का गर्जन सुनकर कहा-

घन घमंड गरजत घन घोर।
प्रियाहीन डरपत मन मोर।।

यह पंक्ति लोगों की ज़बान पर है लेकिन इस पंक्ति को पढ़ने वाले की छत टपक रही है। उसे तुलसीदास के राम की स्थिति में आने की सुविधा नहीं वह राम की नहीं ग़ालिब की स्थिति में है।
गालिब का मकान भी मेरे जैसा होगा। तभी एक चिट्ठी में लिखा है आस्माँ एक घंटा बरसे तो घर दिन भर।’ इसमें राम को मिथक की दुनिया से निकालकर अपनी स्थिति में डाल दिया गया है। तब क्या हुआ ?

‘राम की बात राम जानें। बादलों की गर्जन से डरता मैं भी हूँ, पर इस डर का कारण जानता हूँ। नहीं, राम वाला कारण नहीं है। मेरे डर का कारण कोई हरण की गई प्रिया नहीं है, यह मकान है, जिसकी छाया तले बैठा हूँ। राम इस भय को नहीं जानते थे। वे किसी किराए के मकान में चतुर्मास काटते तो भाई को ऐसी बातें थोड़े ही सिखाते कि हे लक्ष्मण, पर्वत बूंदों के आघात को ऐसे सह रहे हैं, जैसे संत-जन दुष्टों के वचन सहते हैं। वे कहते हैं कि हे लक्ष्मण ! मेरे ठीक सिरहाने एक बड़ा टपका है, मुझे रात को नींद नहीं आई। आज ठीक कराना। और लक्ष्मण ‘जो आज्ञा’ कहकर मकान वाले से शिकायत करने चल देते। पर्वत चाहे बूंदों का आघात कितना ही सहें, लक्ष्मण बर्दाश्त नहीं करते। वे बाण मारकर बादलों को भगा देते या मकान-मालिक का ही शिरच्छेद कर देते।’ (3/16) 1

इसमें राम को उनकी मिथकीय दुनियां से निकालकर टपकने वाली छत के नीचे रहने वाले निम्नमध्यवर्गीय किराएदार के साथ कर दिया गया है। पुराण-गाथा या रोमांचक साहित्य हमें अपनी स्थिति से ऊपर उड़ा ले जाता है। यहाँ निम्नमध्यवर्गीय व्यक्ति की स्थिति पुराण, गाथा, मिथक को अपनी तरह बना लेती है। अपनी स्थिति का अविस्मरणीय आग्रह परसाई के व्यंग्य निबंधों की विशेषता है, वे मिथकों का उपयोग मिथक-भंजन के लिए करते हैं। इससे वर्तमान या वस्तुस्थिति उजागर होती है।

हम जानते हैं कि पौराणिक नायकों को वर्तमान में पहले भी लाया गया है, अब भी लाया जाता हैः ‘मानुस हौं तो बही कवि चोंच बसौं नित टेम्स नदी के किनारे/ ’जो पशु हौं तो बनौं बुलडाग चलौं नितकार में पूँछ निकारे/’ आदि में भी यही किया गया है। पौराणिक पात्रों को आधुनिक स्थितियों में डालकर, नए फैशन की हँसी उड़ाना हिंदी व्यंग्य में बहुत पहले से ही शुरू हो गया था। लेकिन ऐसे लोग वर्तमानता को परसाई की तरह नहीं देखते। परसाई की दृष्टि द्वंद्वात्मक है। उनके यहाँ वर्तमानता एक ऐतिहासिक अवधारणा और मूल्य है। वे पौराणिक पात्रों की टक्कर प्रायः निम्नमध्यवर्गीय, अभावग्रस्त या शोभित पात्रों से कराते हैं। उनके यहाँ ये पौराणिक पात्र वर्तमान युग की जटिल विषमता में उलझकर अपनी पौराणिक गरिमा झाड़ देते हैं। अभावग्रस्त शोभित जन के प्रति बेहद करुणा ही परसाई को कबीर और गा़लिब से जोड़ती है। यह करुणा व्यंग्य में छिपी रहती है। परसाई को कबीर और गालिब से जोड़ती है। यह करुणा व्यंग्य में छिपी रहती है।
परसाई को कबीर और ग़ालिब से यों ही नहीं जोड़ा

1. (3/16) परसाई रचनावली, खंड 3, पृष्ठ 16 का सूचक है। आगे भी यही क्रम है।

परसाई को कबीर और ग़ालिब से यों ही नहीं जोड़ा जा रहा है। इस पर यथावसर चर्चा की जाएगी।
परसाई के लेखन को समग्रता में देखा जाए तो वर्तमान भारत के द्वंद्व का चित्र उभरेगा। इस चित्र में एक कसमसाता, छटपटाता हुआ भारत है जिसे एक और छद्म भारत ने दबोच रखा है। दबोचने वाला और दमित दोनों भारत सक्रिय हैं। दोनों के बीच निरंतर दाव-पेंच चल रहे हैं। शोषक-शोषित उनकी समस्याएँ, सांस्कृतिक, आर्थिक आचरण सब परम्पर संबद्ध हैं। इस सघन परम्परा-संबंधता को ही वर्तमानता की अखंडता समझिए। इससे उच्च वर्ग, मध्य वर्ग और निम्न वर्ग सब की आशाएँ, आकांक्षाएँ हैं। सबके अपने-अपने दुःख हैं। दुख और सुख विविध हैं, भिन्न हैं, परस्पर विरोधी हैं, छद्म हैं, सच्चे हैं।

‘मेरा दुख यह है कि मुझे बिजली का 40 रू. का बिल जमा करना है और मेरे पास इतने रुपए नहीं है।
तभी एक बंधु अपना दुख बताने लगता है। उसने 8 कमरों का मकान बनाने की योजना बनाई थी।6 कमरे बन चुके हैं। 2 के लिए पैसे की तंगी आ गयी है।
एक बंधु की रोटरी मशीन आ गयी है। अब मोनो मशीन आने में कठिनाई आ गई है। वे दुखी हैं।
एक जीवित रहने का संघर्ष है और एक संपन्नता का संघर्ष।’ (3/ 45-46)

सतर्क वैज्ञानिक-बोध परसाई की रचना का प्रधान साधक है। वे इस बोध से संस्थानों, रूढ़ियों, आचरण आदि के टुकड़े कर देते हैं और उनका व्यंग्य वास्तविकता प्रकट कर देता है। चूँकि अमानवीय है अतएव इसकी अनुभूति करुणा जगाती है।
स्वातंत्र्योत्तर भारत स्वाधीनता आंदोलन के सिद्धांत गायब नहीं हो गए हैं। उनका इस्तेमाल किया जाता है मुखौटों के रूप में। कथनी और करनी में भिन्नता नहीं, विपरीतता है। फलतः देश में मानवीय विरासत को मुखौटै के रूप में इस्तेमाल किया जाता है। यह हमारे देश में ज्यादा आसान है क्योंकि हमारे देश की जनता का अधिकांश रूढ़िग्रस्त है। जो शिक्षित हैं उनकी आँखों पर भी रूढ़ि और अंधविश्वास का आवरण पड़ा है। जनता का शोषण करने वाली शक्तियाँ एक हो जाती हैं। सांप्रदायिकता, बहुराष्ट्रीय पूँजी, फासिज्म, धर्म, वर्ग-विभाजन को बरकरार रखने वाली राजनीतिक शक्तियाँ सब इस नाटकीय षड्यंत्र में शामिल होकर एक जुट हो जाती हैं।

राजनीतिज्ञ स्वाधीनता आंदोलन के नारों-सत्य, अहिंसा, सेवा को, धर्माधिकारी अतीत को, फासिज्म संस्कृति को मुखौटा बनाते हैं तो देशी पूँजीवाद और बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ सब कुछ इस्तेमाल विज्ञापन के रूप में करती हैं। विज्ञापन हमारे युग का सबसे बड़ा और घातक मुख़ौटा है। वह आर्थिक शोषण के लिए राजनैतिक, चरित्र, संस्कृति, मानसिकता को विकृत करता है। नारी को शारीरिकता में सीमित करता है। इस तरह स्पष्ट हो जाता है कि पूँजीवाद सामंती दृष्टि का ही विकास है। इसके लिए क्षणवाद एवं व्यक्तिवादी अनुभववाद सहायक होते हैं।

परसाई यह सारा छद्म देख लेते हैं तो इसका श्रेय उस वैज्ञानिक दृष्टि को भी है जो पूँजीवादी के विरोध में समाजवादी विकास का विकल्प प्रस्तुत करती है। साम्राज्यवाद से समर्पित, कभी-कभी उससे अपने स्वार्थ के लिए टकराता हुआ भी, देशी पूँजीवीद और अनेकता के साथ एकता में विश्वास करने वाला समाजवाद-इन दोनों का परस्पर विरोध हमारे युग की वर्तमानता का अंतर्विरोधी है। इसे हमारे देश का प्रत्येक जन झेल रहा है। प्रत्येक व्यक्ति इस संघर्ष-गाथा का पात्र है। हम जब आँकड़ों का सिद्धांतों की भाषा में बहस करते हैं, तब इस संघर्ष गाथा की अनुभव धार बहुत कुछ अरूप होकर ओझल हो जाती है। देश के एक-एक जन का दुःख अनुभव अपने आप में अखंड है। इन सबके अनुभवों को एक साथ देखने का प्रयास करने वाला रचनाकार अपने युग का महाकाव्य लिखता है। इस व्याप्ति में प्रत्येक का संघर्ष ओझल नहीं होता। यही वर्तमानता है। मुक्तिबोध पीड़ा में जो व्याप्ति है, वह दृष्टव्य हैः

मुझे भ्रम होता है कि प्रत्येक पत्थर में
चमकता हीरा है,
हर एक छाती में आत्मा अधीरा है
प्रत्येक सुस्मित में विमल सदानीरा है
मुझे भ्रम होता है कि प्रत्येक वाणी में
महाकाव्य पीड़ा है
दुःख की कथाएँ, तरह-तरह की शिकायतें,
अहंकार विश्लेषण, चारित्रिक आख्यान,
जमाने के जानदार सूरें व आयतें
सुनने को मिलती हैं।

यही महाकाव्य-पीड़ा परसाई की रचना में हैं उसका रूप है। स्वातंत्र्योत्तर भारत में कथनी-करनी की विपरीतता और नाटकीयता उत्पन्न की है, वह उनके व्यंग्य-निबंधों में है। लेकिन इस विपरीतता और नाटकीयता में सफल शोषकों का स्वांग और अभावग्रस्त जन की पीड़ा है। इस पीड़ा का विभावन है।

यह पीड़ा-बोध परसाई के सौंदर्य-बोध का अंग है। वे व्यंग्य के पैने हथियार से हमारी अमानवीयता और कमजोरियों को छील-छीलकर नैतिक दृष्टि से अधिक विकसित मनुष्य को गढ़ते हैं। उनका सतर्क बोध उनके व्यंग्य को वैज्ञानिक नैतिकता और सौंदर्य-बोध से जोड़ता है। यह बोध वर्तमानता की पर्तों और नाटकीयता है। वह विभिन्न मनोविकारों को संबद्ध करके करुणा की भूमि का विस्तार करता है। इन सबसे परसाई का व्यंग्य अधिक जटिल बनता है। वह पहले की अपेक्षा अधिक मनोविकारों और जीवन स्थितियों से संपृक्त है। उनका व्यंग्य अधिक अर्थ-भूमि पर स्थिति है, वह अधिक भाव-भूमि घेरता है। आचार्य शुक्ल के शब्दों में कहें तो परसाई के व्यंग्य से मनोविकारों का ‘व्यायाम’ होता है।

व्यंग्य विषमता पर आधारित होता है, वह चोट भी विषमता पर करता है। विषमता का विलोम सुषमा है-सुषमा सौंदर्य उत्पन्न करती है। सुषमा को औचित्य भी कह सकते हैं, जो जहाँ जितना होना चाहिए वह वहाँ उतना है तो उससे सौंदर्य उत्पन्न होगा। नहीं है-अनौचित्य है तो विषमता होगी-यही कुरुपता है। इससे हास्य उपन्न होता है। ‘व्यंग्य’ शब्द में विकलांगता का भाव है। जिस प्रकार स्थूल और शारीरिक विषमता होती है उसी प्रकार सामाजिक और आचरणगत भी। घटिया लोग लंबी नाक, मोटी तोंद, हकलाहट, विकलांगता की हँसी उड़ाकर अपने को रचनाकार समझते हैं। ऐसा व्यंग्य (?) हिंदी की रंग-बिरंगी पत्रिकाओं में खपा रहता है। यह उसी प्रकार का छिछोरापन है जैसा कि चटक-मटक, बाँकी अदा, पतली कमर पर फिदा हो जाना। ऐसी हँसी मानवीयता नहीं पशुता की पहचान है। यह बात पशुओं में नहीं मानव-पशुओं में पाई जाती है। वे लँगड़े आदमी की विकंलागता पर हँसते हैं, उनकी हँसी से आदमी को कितनी तकलीफ हो रही है, इस पर ध्यान नहीं देते। इतिहास में अमानवीय हँसी के दारुण उदाहरण हैं। कहते हैं कि रोमन लोग एकत्र होकर युद्ध बंदियों के सामने भूखे शेरों को छोड़ देते थे। यह उनका मनोरंजन था। नीरो रोम को आग की लपटों में देख रहा था और वायलिन बजा रहा था। वह अपनी जातीय परम्परा का ही निर्वाह कर रहा था। दुःखी आदमी पर हँसना, उस पर ईंट-पत्थर चलाने जैसा है। पीड़ा-व्यथा पर खल हँसना ही जानते हैं। मीरा ने लिखा-

मेरो मरण औ जग केरी हाँसी।

यह हँसी दुख को और तीव्र कर देती है, यानी उसे और असहनीय बना देती है। संवेदनशील प्राणी के लिए यह हँसी कैसी होती है, इसकी व्यंजना निराला कि इन पंक्तियों में हैः
‘दूबर होत नहीं कबहूँ पकवान के विप्र मसान के कूकुर’ की सार्थकता मैंने मित्रों में देखी, जिनकी निगाह दूसरों की दुनिया की लाश पर थी। वे पहले फटीचर थे, पर अब अमीर बन गये हैं, दोमंज़िला मकान खड़ा कर लिया है, मोटर पर सैर करते है, मुझे देखते हैं जैसे मेरा-उनका नौकर-मालिक का रिश्ता हो। नक्की स्वरों में कहते हैं-हाँ, अच्छा है; ज़रा सनकी है। फिर बड़े गहरे पैठकर मित्र के साथ हँसते हैं।’ (देवी)

हँसी खलों को ही नहीं आती। कबीर को भी आती थी। कबीरदास को हँसी भी आती है और रोना भी आता है। लोग झूठी सफलता पर इतराते हैं, मूर्ख और ज्ञानियों की मुद्रा अपनाते हैं, जानते कुछ नहीं और बखानते ज्यादा हैं तो कबीरदास को हँसी आती है। अज्ञानता के कारण लोग भटकते हैं, परेशान होते हैं तो कबीरदास उदास होते हैं, कभी-कभी रो भी देते हैं। कबीरदास की हँसी उनके रोने से जुड़ी है। जो सांसारिक दृष्टि से सफल हैं, झूठे सुख को सुख समझकर पुलकित हैं उन पर कबीरदास हँसते हैं, सामान्य लोगों के भ्रम पर वे उदास होते हैं या रोते हैं। हास्य और करुणा का यह मेल कबीर की मानवीयता के कारण है।

हँसता वह है जो अपने आप को उचित या सुरक्षित समझता है। वह दूसरों की हँसी उड़ाता है। मायाग्रस्त लोग अज्ञानी हैं। वे असुरक्षित हैं, तब भी हँसते हैं। हास्यास्पद दूसरों की हँसी उड़ाए तो उसकी हास्यास्पदता बहुत बढ़ जाती है। कबीरदास ऐसे लोगों से कहते हैं- बहुत जमा कर लिया है, समझते हो सब कुछ ‘मेरा है।’ यमराज का डंडा मूँड़ पर लगते ही फैसला हो जाएगा कि तुम्हारा क्या हैः
जम का डंड मूँड़ महि लागै पल मा होई निबेरा।
कबीरदास राम के भरोसे अपने को सुरक्षित और सांसारिक दृष्टि से सफल किंतु राम-विमुख लोगों की मूर्खता पर हँसते थे। इस व्यंग्य का तर्क और बोध था। वह जाग्रत व्यक्ति का व्यंग्य था उनका व्यंग्य करुणा से स्पंदित था। वह लोकोन्मुख भी था।, पक्षधर था–भक्तों और पीड़ित प्राणियों के पक्ष में कबीर जागते हैं, दुखी हैं और रोते हैं:
सुखिया सब संसार है खावै औ सोवै।
दुखिया दास कबीर है जागै औ रोवै।।
जागना बोध है, रोना करुणावान् होना है, दुखी होना संवेदनशील होना है। जिस तरह व्यंग्य का तर्क और बोध है उसी प्रकार दुखी होने और रोने का भी। यह वही कबीर दास हैं जो बेहद्दी मैदान में सोते हैं, जो काम ब्रह्मा, विष्णु, महेश भी नहीं कर पाए यानी अपनी चादर को निर्मल न रख सके, उसे ‘जस का तस’ धर देने वाले हैं। यह अखंड विश्वास, हास्य-व्यंग्य करुणा- सब उनके मानसिक ढाँचे के विविध किंतु अंतस्संबंधित पहलू हैं। मानसिक ढाँचे की इस समग्रता को ही उनकी भक्ति कहनी चाहिए। हरिशंकर परसाई के व्यंग्य का आधार इतिहास बोध है। यह इतिहास बोध उनकी समस्त रचनात्मकता में सक्रिय है। यही उन्हें वह औचित्य और सुरक्षा प्रदान करता है जिसके भरोसे वे व्यंग्य कर सकते हैं और समाज-विरोधियों पर हँस सकते हैं। कबीर परमसत्ता की साधना करते थे, वे काल को चीरकर कालातीत स्थिति में पहुँचने का रास्ता खोजत थे। फिर भी ‘मूरों’ (गुलामों को बेचनेवाले सौदागरों) के लिए नहीं, ‘बंदियों’ (जिन्हें गुलाम के रूप में बेचा जाता था) के लिए रोने की बात करते थे-
मूरों को का रोइए जे़ अपने घर जाहिं।
रोइए बंदी जनन को जे हाटहिं-हाट बिकाहिं।।
परसाई समाजवाद में विश्वास करते हैं। वे वर्ग-विभक्त समाज में दूसरों का हक छीनकर सांसारिक सफलता प्राप्त करने की अमानवीयता एवं टुच्चेपन को समझते हैं।

__________________ विश्वनाथ त्रिपाठी, देश के इस दौर में से साभार

परम्परा का मूल्यांकन








जो लोग साहित्य में युग-परिवर्तन करना चाहते हैं, जो लकीर के फकीर नहीं हैं, जो रूढ़ियाँ तोड़कर क्रान्तिकारी साहित्य रचना चाहते हैं, उनके लिए साहित्य की परम्परा का ज्ञान सबसे ज्यादा आवश्यक है. जो लोग समाज में बुनियादी परिवर्तन करके वर्गहीन शोषणमुक्त समाज की रचना करना चाहते हैं, वे अपने सिद्धान्तों को ऐतिहासित भौतिकवाद के नाम से पुकारते हैं. क्या आप कल्पना कर सकते हैं कि इतिहास के ज्ञान के बिना ऐतिहासिक भौतिकता का ज्ञान सम्भव है? कम से कम ऐतिहासिक भौतिकता के संस्थापकों की पुस्तकें पढ़ने से ऐसा नहीं लगता. जो महत्त्व ऐतिहासिक भौतिकवाद के लिए इतिहास का है, वही आलोचना के लिए साहित्य की परम्परा का है. इतिहास के ज्ञान से ही ऐतिहासिक भौतिकवाद का विकास होता है, साहित्य की परम्परा के ज्ञान से ही प्रगतिशील आलोचना का विकास होता है. ऐतिहासिक भौतिकवाद के ज्ञान से समाज में व्यापक परिवर्तन किये जा सकते हैं और नयी समाज-व्यवस्था का निर्माण किया जा सकता है. प्रगतिशील आलोचना के ज्ञान से साहित्य की धारा मोड़ी जा सकती है और नये प्रगतिशील साहित्य का निर्माण किया जा सकता है. ऐतिहासिक भौतिकवाद कुछ अमूर्त सिद्धान्तों का संग्रह नहीं है, वह मानव समाज के इतिहास का मूर्त ज्ञान है. वैसे ही प्रगतिशील आलोचना किन्हीं अमूर्त सिद्धान्तों का संकलन नहीं है, वह साहित्य की परम्परा का मूर्त ज्ञान है. और यह ज्ञान उतना ही विकासमान है जितना साहित्य की परम्परा.

ऐतिहासित भौतिकवाद के संस्थापकों के अनुसार जब से सभ्यता का विकास हुआ, व्यक्तिगत सम्पत्ति और वर्गों का अभ्युदय हुआ, तब सारी संस्कृति, समस्त साहित्य का विकास ऐसी समाज-व्यवस्था में हुआ है, जिसमें सम्पत्ति अधिकांश जनता के शोषण का साधन रही है. सामन्ती सम्पत्ति और पूँजीवादी व्यव्स्था में पूँजीवादी सम्पत्ति अपने साथ के तमाम आर्थिक सम्बन्धों सहित शोषण-व्यवस्था कायम किये रही है. सभ्य समाज में सदैव सम्पत्ति- शाली वर्गों का प्रभुत्व रहा है. अब जिस नये समाज की रचना करनी है, उसमें इस प्रभुत्व को समाप्त कर दिया जायेगा; जिस नयी सभ्यता की रचना करनी है, वह पुरानी सभ्यता से गुणात्म रूप से भिन्न होगी. तब पुराने इतिहास की ज़रूरत क्या है? नयी सभ्यता को पुरानी सभ्यता की ज़रूरत क्या है?

नयी सभ्यता पुरानी सभ्यता से गुणात्मक रूप से भिन्न होगी, ऐतिहासिक प्रक्रिया का यह एक पक्ष है. दूसरा पक्ष यह है कि वह पुरानी सभ्यता की समस्त उपलब्धियों को आत्मसात् करके आगे बढ़ेगी और इतने बड़े पैमाने पर, राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर, उन्हें अपनायेगी कि वैसा कार्य मानव इतिहास में अभूतपूर्व होगा.

मनुष्य जाति का इतिहास- आदिम गण समाजों के विघटन के बाद-वर्ग-संघर्ष का इतिहास है. जब-जब शोषित वर्गों ने अपने अधिकारों के लिए, अपनी स्थिति सुधारने के लिए संघर्ष किया, तब-तब उनका यह संघर्ष उनके उत्तराधिकारी नये समाज के विधायकों के लिए महत्त्वपूर्ण रहा है. इसके साथ उन्होंने अपने वर्ग हितों के अनुकूल अपनी संस्कृति, अपने साहित्य की रचना की है. पर इसके अलावा सभ्यता का इतिहास वर्ग-सहयोग का इतिहास भी है. भले ही यह सहयोग शोषक वर्ग के लोगों को फुसलाकर, डरा-धमकाकर या दबाकर प्राप्त किया हो, बलप्रयोग द्वारा उन्हें अपनी आज्ञा मानने पर बाध्य किया हो, पर है वह वर्ग-सहयोग. प्रश्न इच्छा-अनिच्छा का नहीं है, प्रश्न ऐतिहासिक प्रक्रिया के वस्तुगत रूप का है. सैकड़ों पीढ़ियों तक श्रमिक जनता ने जिस सभ्यता का निर्माण किया है, जो उसके श्रम के बिना अस्तित्व ही में न आती, क्या उनके प्रति उनका नकारात्मक रुख अपनाना सही है? अनेक देशों में ऐसा हुआ है कि सामन्ती व्यवस्था खत्म करने के बाद जनता ने राजप्रासादों का उपयोग अपने हित में किया. उसने उसकी पहले से और भी अधिक रक्षा की और पहले की अपेक्षा उनका और भी अच्छा उपयोग किया. तब पुरानी संस्कृति के कौन से तत्त्व श्रमिक जनता के काम आ सकते हैं, कौन से तत्त्व उसके लिए हानिकारक हैं, इसका निर्धारण आवश्यक होता है.

ऐतिहासिक विकासक्रम में किसी भी समाज व्यवस्था के अन्तर्गत सम्पत्तिशाली वर्ग की भूमिका उस व्यवस्था के अभ्युदय काल में यह सम्पत्तिशाली वर्ग पुरानी व्यवस्था को बदलता है और सभ्यता के विकास का मार्ग प्रशस्त करता है. अपने ह्रास काल में वह अपना प्रभुत्व कायम रखना चाहता है, सामाजिक परिवर्तन के आड़े आता है, सभ्यता के विकास में बाधक बनता है दोनों स्थितियों में वह जिस तरह की संस्कृति को प्रश्रय देता है, उसमें बहुत बड़ा अन्तर है.

इसलिए साहित्य की परम्परा का मूल्यांकन करते हुए सबसे पहले हम उस साहित्य का मूल निर्धारित करते हैं जो शोषक वर्गों के विरुद्ध श्रमिक जनता के हितों को प्रतिबिम्बित कराता है. इसके साथ हम उस साहित्य पर ध्यान देते हैं जिसकी रचना का आधार शोषित जनता का श्रम है, और यह देखने का प्रयत्न करते हैं कि वह वर्तमान काल में जनता के लिए कहाँ तक उपयोगी है और उसका उपयोग किस तरह हो सकता है. इसके अलावा जो साहित्य सीधे सम्पत्तिशाली वर्गों की देख-रेख में रचा है और उनके वर्ग हितों को प्रतिबिम्बित करता है, उसे भी परखकर देखना चाहिए कि यह अभ्युदयशील वर्ग का साहित्य है या ह्रासमान वर्ग का. यह स्मरण रखना चाहिए कि पुराने समाज में वर्गों की रूप-रेखा कभी बहुत स्पष्ट नहीं रही. जहाँ पूँजीवाद का यथेष्ट विकास हो गया है, वहीं यह सम्भावना होती है कि सम्पत्तिशाली और सम्पत्ति हीन वर्ग एक-दूसरे के सामने पूरी तरह विरोधी बनकर खड़े हों. पुराने साहित्य में वर्ग-हित साफ़-साफ़- टकराते हुए दिखाई दें, इसकी सम्भावना कम होती है. सभ्यता के अनेक तत्त्वों की तरह साहित्य में ऐसे तत्त्व होते हैं जो विरोधी वर्गों के काम में आते हैं. आग की तरह जलाकर खाना पकाना मानव सभ्यता का सामान्य तत्त्व बन गया है. कल-कारखानों में भाप और बिजली से चलने वाली मशीनों का उपयोग समाजवादी व्यवस्था में होती है और पूँजीवादी व्यवस्था में भी. सभ्यता का हर स्तर वर्गबद्ध नहीं होता. इसी तरह साहित्य का हर स्तर सम्पक्तिशाली वर्गों के हितों से बँधा हुआ नहीं रहता. साहित्य की इस व्यापकता को स्वीकार न करना वैसे ही है जैसे समाजवादी व्यवस्था में बिजली का उपयोग न करना क्योंकि इसका आविष्कार पूँजीवादी समाज में हुआ था. और उसका उपयोग भी पूँजीपतियों ने अपने हित में किया था.

साहित्य मनुष्य के सम्पूर्ण जीवन से सम्बद्ध है. आर्थिक जीवन के अलावा मनुष्य एक प्राणी के रूप में भी अपना जीवन बिताता है. साहित्य में उसकी बहुत-सी आदिम भावनाएँ प्रतिफलित होती हैं जो उसे प्राणिमात्र से जोड़ती हैं. इस बात को बार-बार कहने में कोई हानि नहीं है कि साहित्य विचारधारा मात्र नहीं है. उसमें मनुष्य का इन्द्रिय-बोध, उसकी भावनाएँ आन्तरिक प्रेरणाएँ भी व्यंजित होती हैं. साहित्य का यह पक्ष अपेक्षाकृत स्थायी होता है.

जिस समय ऐतिहासिक भौतिकता की स्थापना हुई, उस समय जीव-विज्ञान में विकासवाद का बोलबाला था. यह विकासवाद सही हो चाहे गलत, यह बात सच है कि साहित्य में विकास-प्रक्रिया उसी तरह सम्पन्न नहीं होती जैसे समाज में. सामाजिक विकास-क्रम में सामन्ती सभ्यता की अपेक्षा पूँजीवादी सभ्यता को अधिक प्रगतिशील कहा जा सकता है और पूँजीवादी सभ्यता के मुकाबले समाजवादी सभ्यता को. पुराने चरखे और करघे के मुकाबले मशीनों के व्यवहार से श्रम की उत्पादकता बहुत बढ़ गयी है. पर यह आवश्यक नहीं है कि सामन्ती समाज के कवि की अपेक्षा पूँजीवादी समाज का कवि श्रेष्ठ हो। यह भी सम्भव है कि आधुनिक सभ्यता विकास कविता का विरोधी हो और कवि स्वयं बिकाऊ माल बन रहा हो. व्यवहार में यही देखा जाता है कि 19वीं और 20वीं सदी के कवि-क्या भारत में और क्या यूरुप में –पुराने कवियों को घोटे जा रहे हैं और कहीं उनके आस-पास पहुँच जाते हैं तो अपने को धन्य मानते हैं. ये जो तमाम कवि अपने पूर्ववर्ती कवियों की रचनाओं का मनन करते हैं, वे उनका अनुकरण नहीं करते उससे सीखते हैं, और स्वयं नयी परम्पराओं को जन्म देते हैं. और जो साहित्य दूसरों की नकल करके लिखा जाए, वह अधम कोटि का होता है और सांस्कृति असमर्थता का सूचक होता है. जो महान साहित्यकार हैं, उनकी कला की आवृत्ति नहीं हो सकती, यहाँ तक कि एक भाषा से दूसरी भाषा को अनुवाद करने पर उनका कलात्मक सौन्दर्य ज्यों-का-त्यों नहीं रहता. औद्योगिक उत्पादन और कलात्मक उत्पादन में यह बहुत बड़ा अन्तर है. अमरीका ने ऐटमबम बनाया, रूस ने भी बनाया, पर शेक्सपियर के नाटकों जैसी चीज़ का उत्पादन दुबारा इग्लैंड में भी नहीं हुआ.

भौतिकवाद दो तरह का है, एक यान्त्रिक भौतिकवाद, दूसरा द्धन्द्धात्मक भौतिकवाद. यान्त्रिक भौतिकवाद की विशेषता यह है कि वह चेतना को आर्थिक सम्बन्धों का प्रतिबिम्ब मात्र मानता है. प्रतिबिम्ब यान्त्रिक होता ही है. जब चेतना प्रतिबिम्ब है, तब संस्कृति का ताना-बाना भी पूरी तरह बदल जाता है. इस यान्त्रिक भौतिकवाद का विकास फ्रान्स में हुआ; 19वीं सदी में जब भौतिक विज्ञान का विकास हुआ, तो इस विज्ञान का दार्शनिक दृष्टिकोण इसी यान्त्रिक भौतिकवाद से प्रभावित हुआ. इसके विपरीत द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद मनुष्य की चेतना को आर्थिक सम्बन्धों से प्रभावित मानते हुए उसकी सापेक्ष स्वाधीनता स्वीकार करता है. आर्थिक सम्बन्धों से प्रभावित होना एक बात है, उनके द्वारा चेतना का निर्धारित होना और बात है. भौतिकता का अर्थ भाग्य-बाद नहीं है. सब कुछ परिस्थितियों द्वारा अनिवार्यतः निर्धारित नहीं हो जाता. यदि मनुष्य परिस्थितियों का नियामक नहीं है तो परिस्थितियाँ भी मनुष्य की नियामक नहीं हैं. दोनों का सम्बन्ध द्वन्द्वात्मक है. यही कारण है कि साहित्य सापेक्षरूप में स्वाधीन होता है.

गुलामी अमरीका में थी और गुलामी एथेन्स में भी, किन्तु एथेन्स की सभ्यता ने सारे यूरुप को प्रभावित किया और गुलामों के अमरीकी मालिकों ने मानव संस्कृति को कुछ भी नहीं दिया. सामन्तवाद दुनिया भर में कायम रहा. पर इस सामन्ती दुनिया में महान् कविता के दो ही केन्द्र थे- भारत और ईरान। पूँजीवादी विकास यूरुप के तमाम देशों में हुआ पर रैफेल, लेओनार्दों दा विंची और माइकेल ऐंजेलो इटली की देन हैं. यहाँ हम एक ओर यह देखते हैं कि विशेष सामाजिक परिस्थितियों में कला का विकास सम्भव होता है, दूसरी ओर हम यह देखते हैं कि समान सामाजिक परिस्थितियाँ होने पर भी कला का समान विकास नहीं होता. यहाँ हम असाधारण प्रतिभाशाली मनुष्यों की अद्वितीय भूमिका भी देखते हैं. जिस तरह औद्योगिक उत्पादन का समाजीकरण पूँजीवादी व्यवस्था में होता हैं, उस तरह साहित्यिक रचना का समाजीकरण नहीं होता. कारखाने में 1500 मज़दूर मिलकर दिन-प्रतिदिन थान के थान कपड़े निकाल सकते है. यदि साहित्यकारों को साहित्य-रचना के कारखाने में भर्ती कर दिया जाए तो हो सकता है कि उनके कुछ दोष दूर हो जायें, अथवा वे एक दूसरे से इतना लड़ें कि और किसी काम के लिए उन्हें फुरसत न मिले, पर नियमित रूप से उच्च कोटि के उपन्यास, काव्य, नाटक के लिए उन्हें फुरसत न मिले, पर नियमित रूप से उच्च कोटि के उपन्यास, काव्य, नाटक, पंचवर्षीय योजना के अनुसार, उस कारखाने से निकलते रहेंगे, इसकी सम्भावना ज़रा कम है. साहित्यकार आपसी सहयोग से लाभ उठाते हैं पर अभी उस तकनीक का पता नहीं लगाया जा सका, जिसे लोगों को सिखाकर साहित्य का सामूहिक उत्पादन किया जा सके.

साहित्य के निर्माण में प्रतिभाशाली मनुष्यों की भूमिका निर्णायक है. इसका यह अर्थ नहीं कि ये मनुष्य जो कुछ करते हैं. वह सब अच्छा ही अच्छा होता है, या उनके श्रेष्ठ कृतित्व में दोष नहीं होते है. कला का पूर्णतः निर्दोष होना भी एक दोष है. ऐसी कला निर्जीव होती है. इसलिए प्रतिभाशाली मनुष्यों की अद्वितीय उपलब्धियों के बाद कुछ नया और उल्लेखनीय करने की गुंजाइश बनी रहती है. आजकल व्यक्ति पूजा की काफी निन्दा की जाती है. किन्तु जो लोग सबसे ज्यादा व्यक्ति-पूजा की निन्दा करते हैं, वे सबसे ज़्यादा व्यक्ति-पूजा का प्रचार भी करते हैं. अन्तर इतना होता है कि ब्रह्मा की जगह उन्होंने विष्णु को बिठा दिया. लेकिन पूजा तो पूजा. ईश्वर अल्ला तेरे नाम, सबको सन्मति दे भगवान. यदि कोई भी साहित्यकार आलोचना से परे नहीं है, तो राजनीतिज्ञ यह दावा और भी नहीं कर सकते, इसलिए कि साहित्य के मूल्य, राजनीतिक मूल्यों की अपेक्षा, अधिक स्थायी हैं. अंग्रेज कवि टेनीसन ने लैटिन कवि वर्जिल कर एक बड़ी अच्छी कविता लिखी थी. इसमें उन्होंने कहा है कि रोमन साम्राज्य का वैभव समाप्त हो गया. पर वर्जिल के काव्य सागर की ध्वनि-तरंगें हमें आज भी सुनायी देती हैं और हृदय को आनन्द-विह्यल कर देती हैं कि जब ब्रिटिश साम्राज्य का कोई नाम लेवा और पानीदेवा नहीं रह जायेगा, तब शेक्सपियर, मिल्टन और शेली विश्व संस्कृति के आकाश में वैसे ही जगमगाते नज़र आयेंगे जैसे पहले, और उनका प्रकाश पहले की उपेक्षा करोड़ों नयी आँखें देखेंगी.

साहित्य के विकास में प्रतिभाशाली मनुष्यों की तरह, जनसमुदायों और जातियों की विशेष भूमिका होती है. इसे कौन नहीं जानता कि पुरुष के सांस्कृतिक विकास में जो भूमिका प्राचीन यूनानियों की है, वह अन्य किसी जाति की नहीं है. जनसमुदाय जब एक व्यवस्था से दूसरी व्यवस्था में प्रवेश करते हैं तब उनकी अस्मिता नष्ट नहीं हो जाती. प्राचीन यूनान अनेक गणसमाजों में बँटा हुआ था. आधुनिक यूनान एक राष्ट्र है. यह आधुनिक यूनान अपनी प्राचीन संस्कृति से अपनी एकात्मकता स्वीकार करता है या नहीं? 19वीं सदी में शेली और बायरन अपनी स्वाधीनता के लिए लड़ने वाले यूनानियों को ऐसी एकात्मकता पहचानने में बड़ा परिश्रम किया. भारतीय स्वाधीनता आन्दोलन के दौरान इस देश ने इसी तरह अपनी एकात्मकता पहचानी. इतिहास का प्रवाह ही ऐसा है कि वह विच्छिन्न है और अविच्छिन्न भी. मानव समाज बदलता है और अपनी पुरानी अस्मिता कायम रखता है. जो तत्त्व मानव समुदाय को एक जाति के रूप में संगठित करते हैं, उनमें इतिहास और सांस्कृतिक परम्परा के आधार पर निर्मित यह अस्मिता का ज्ञान अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है.

बंगाल विभाजित हुआ और है, किन्तु जब तक पूर्वी और पश्चिमी बंगाल के लोगों को अपनी साहित्यिक परम्परा का ज्ञान रहेगा, तब तक बंगाली जाति सांस्कृतिक रूप से अविभाजित रहेगी. विभाजित बंगाल से विभाजित पंजाब की तुलना कीजिए, तो ज्ञात हो जायेगा कि साहित्य की परम्परा का ज्ञान कहाँ ज्यादा है, कहाँ कम है, और इस न्यूनाधिक ज्ञान के सामाजिक परिणाम क्या होते हैं. एक भाषा बोलने वाली जाति की तरह अनेक भाषाएँ बोलनेवाले राष्ट्र की भी अस्मित होती है. संसार में इस समय अनेक राष्ट्र बहुजातीय हैं, अनेक भाषा-भाषी हैं. जिस समय राष्ट्र के सभी तत्त्वों पर मुसीबत आती है, तब उन्हें अपनी राष्ट्रीय अस्मिता का ज्ञान होता बहुत अच्छी तरह हो जाता है. जिस समय हिटलर ने सोवियत संघ पर आक्रमण किया, उस समय यह राष्ट्रीय अस्मिता जनता के स्वाधीनता संग्राम की समर्थ प्रेरक शक्ति बनी. सोवियत संघ के लोग हिटलर-विरोधी संग्राम को उचित ही महान् राष्ट्रीय (अथवा देशभक्तिपूर्ण) संग्राम कहते हैं. इस युद्ध के दौरान खासतौर से रूसी जाति ने बार-बार अपनी साहित्य-परम्परा का स्मरण किया. सोवियत समाज ज़ारशाही रुस के समाज से भिन्न है. समाज-व्यवस्था के विचार से इतिहास का प्रवाह विच्छिन्न है, जातीय अस्मिता की दृष्टि से यह प्रवाह अविच्छन्न है. ज़ारशाही रूस जाति की अस्मिता को सुदृढ़ और पुष्ट करने वाले महान् साहित्यकार हैं. समाजवादी व्यवस्था कायम होने पर जातीय अस्मिता खण्डित नहीं होती वरन् और पुष्ट होती है. इसके साथ सोवियत संघ में बहुजातीय राष्ट्रीयता का पुनर्जन्म हुआ है और यह राष्ट्रीयता अब एक सामाजिक शक्ति है जैसी वह 1917 से पहले नहीं थी. ज़ारशाही रूस में बहुत-सी जातियाँ पराधीन बनाकर रखी गयी थीं. उन सब पर रूसी जाति के सामन्त और पूँजीपति शासन करते थे. जैसे और बहुत-से साम्राज्य होते हैं, वैसे ही यह भी साम्राज्य था. 1917 की क्रान्ति के बाद रूसी और गैररूसी जातियों के आपसी सम्बन्धों में बहुत बड़ा परिवर्तन हुआ. बहुत-सी जातियाँ सोवियत संघ में शामिल न हुईं, अलग हो गयीं. कुछ विलम्ब से, दूसरे महायुद्द से कुछ ही पहले, अन्य जातियाँ उसमें सामिल हुईं. सोवियत संघ में आज जितनी जातियाँ शामिल हैं, उनका वैसा मिला-जुला राष्ट्रीय इतिहास नहीं है, जैसा भारत की जातियों का है. राष्ट्र के गठन में इतिहास का अविच्छिन्न प्रवाह बहुत बड़ी निर्धारक शक्ति है. यूरुप के लोग यूरोपियन संस्कृति की बात करते हैं. पर यूरुप कभी राष्ट्र नहीं बना. और अब तो पूर्वी यूरुप और पश्चिमी यूरुप, दो यूरुप का अलग उल्लेख आम बात है. संसार का कोई भी देश, बहुजातीय राष्ट्र की हैसियत से, इतिहास को ध्यान में रखें तो, भारत का मुकाबला नहीं कर सकता.

यहाँ राष्ट्रीयता एक जाति द्वारा दूसरी जातियों पर राजनीतिक प्रभुत्व कायम करके स्थापित नहीं हुई. वह मुख्यतः संस्कृति के निर्माण में इस देश के कवियों का सर्वोच्च स्थान है. इस देश की संस्कृति में रामायण और महाभारत को अलग कर दें, तो भारतीय साहित्य की आन्तरिक एकता टूट जायेगी. किसी भी बहुजातीय राष्ट्र के सामाजिक विकास में कवियों की ऐसी निर्णायक भूमिका नहीं रही, जैसी इस देश में व्यास और वाल्मीकी की है. इसलिए किसी भी देश के लिए साहित्य की परम्परा का मूल्याँकन उतना महत्त्वपूर्ण नहीं है जितना इस देश के लिए है.

__________रामविलास शर्मा, परम्परा का मूल्यांकन से साभार