*** 'जूही की कली' : युवा पाठ

"निराला" पुस्तक की भूमिका (द्वितीय संस्करण) में डॉ० रामविलास शर्मा लिखते है कि तब से लेकर अब तक देश और साहित्य में अनेक परिवर्तन हो चुके हैं। भारत अब उपनिवेश न रहकर अर्द्ध-उपनिवेश हो गया है। परंतु यह जर्जर सामंती ढांचा अब भी है। जिससे निराला साहित्य का घनिष्ट संबंध अब भी है

रामविलास जी इसके पहले संस्करण की भूमिका में लिखते हैं कि उनका व्यक्तित्व एक अच्छे खासे हीरो का सा है। उनमे काफी वैचित्र्य एवं नाटकीयता है फिर भी उनके जीवन के एक संक्षिप्त अध्ययन से हमारे सामाजिक संगठन की असंगतियाँ ,उसकी रुढीप्रियता और उसका खोखलापन बहुत कुछ समझ में आ जायेगा । छायावाद के प्रवर्तकों में उनका अन्यतम स्थान है । जो पुराने साहित्य के प्रवर्तक या समर्थक थे और एक पिटी हुई लीक को छोरकर साहित्य में नए प्रयोग करना प्राचीनता का अपमान समझते थे । इसी विरोध को निराला ने अपना केंद्र बनाया साथ ही साथ छायावाद में भी जो जो असंगतियाँ थीं जिससे उनका मार्ग अवरुद्ध हो गया था  । वैसी रचनाओं से मुह मोरकर निराला समाज के यथार्थ जीवन की ओर झुके और साहित्य में एक नई प्रगतिशील धारा के अगुआ बने ।वह दो युगों के प्रतिनिधि साहित्यकार हैं और जीवन के विसम परिस्थितियों में भी उन्होंने साहित्य की साधना की है। 

रामविलास जी की यह भूमिकाएँ अक्षरसः  उनके साहित्य के महत्व को सपष्ट रूप से व्यक्त करता है।

'जूही की कली' निराला की प्रथम रचना मानी जाती है।

         "विजन-वन वल्लरी पर
          सोती थी सुहागभरी - 
          स्नेह-स्वप्न-मग्न अमल-कोमल-तनु-तरुणी
          जूही की कली"

निराला जहाँ एक ओर स्वाधीनता और सामाजिक परिवर्तन के पक्ष में क्रांतिकारी चेतना को प्रेरित कर रहे थे, वहीँ दूसरी ओर जातीय भाषा और राष्ट्रवाद, साथ-साथ वह हिंदी को राष्ट्रभाषा के रूप में प्रतिष्ठित करने हेतु प्रयासरत थे। 'जूही की कली' स्थूल दृष्टि से तो नहीं किन्तु सूक्ष्म दृष्टि से राष्ट्रीय स्वतंत्रता आंदोलन की विषयवस्तु के साथ तात्कालिक समाजिक, राजनैतिक और सांस्कृतिक आन्दोलन को अपने अंदर समाहित किये हुए हैं। जैसा कि इस कविता की बाहरी बनावट या अभिधात्मक रूप कविता को केवल प्रकृति चित्रण जैसा प्रतीत करता है, किन्तु किसी भी कविता का अपने समकालीन यथार्थ एवं विषय-वस्तु का संबंध स्थापन केवल एक स्तर पर नहीं वरन कई सारे स्तरों पर होता है और यही कारण है कि कविता एक स्तर पर नहीं तो अगले स्तर पर राष्ट्रीय जागरण या आन्दोलन की मूल चुनौतियों को गहराई से समझते हुए अभिव्यक्त होता है।

जागरण या नवजागरण की पहली शर्त है राष्ट्रीय-स्वाभिमान की उत्पत्ति जो अलसाया हुआ-सा किन्तु तरुणी अर्थात् उर्जा से पूर्ण और चेतन है, का आह्वान करता है ।

      "स्नेह-स्वप्न-मग्न अमल-कोमल-तनु-तरुणी
       जूही की कली"

अर्थात्र्र् शिथिल किन्तु चेतना-युक्त अवस्था जो अव्यक्त या अप्रत्यक्ष है, जो साहित्य में साधना- अवस्था की पूर्व-पीठिका भी है, जो लोकमंगल या राष्ट्रमंगल का आयोजन करता है। निराला की 'राम की शक्तिपूजा' में भी इसी मूल को वांछनीय परिवर्तन के स्तर पर संकेत देता हुआ सा प्रतीत होता है ।

     "शक्ति की करो मौलिक कल्पना 
       करो पूजन "

यहाँ पूजन साधनावस्था है तो उसकी मौलिक कल्पना पूर्व-पीठिका जो एक धरातल का निर्माण करती है जहाँ साधना संभव हो सके । 

        'कोई न छायादार 
         पेड़ वह जिसके तले बैठी हुई स्वीकार ' 

यही चेतना यथास्थिति अवलोकन भी करती है जो कहीं बेचैन तो कहीं शांत अभिव्यक्त होता है । स्व का अवलोकन उस सूक्ष्म अंतर्मन की चाह को भी दर्शाता है जो मौजूदा परिस्थितियों से संतुष्ट तो बिलकुल भी नहीं है, त्रस्त जरुर है अन्यथा यहाँ यह अवलोकन अस्तित्वहीन होता जो नीचे के पंक्तियों में और भी अधिक स्पष्ट होता है-

     "अलक्षित हूँ, यही" (स्नेह निर्झर बह गया )

इस स्वातन्त्र्य की चेतना का संचार मुख्य रूप से द्विवेदी युग से शुरू हुआ माना जाता है 1857 की क्रांति के बाद और 1885 में कांग्रेस की स्थापना के बाद इस राष्ट्रीय स्वतंत्रता आन्दोलन में तेजी के साथ ही व्यापक परिवर्तन भी हुआ जिसका सर्वोच्च झलक हमें निराला साहित्य में देखने को मिलता है । इस दौर में क्रिया के विपरीत प्रतिक्रिया में ही सही किन्तु भारतीयों में अपनी संस्कृति के प्रति गौरव की भावना उत्पन्न हो गई और राष्ट्रीयता की नवीन धारणा बनकर तैयार हुई। इस राष्ट्रीयता का जो स्वरुप भारतेंदु युग में शायद  तैयार नहीं हो पाया था वह द्विवेदी युग में तय हो गया या कहें तो निराला ने इसको स्पष्ट आकार दे दिया क्योकि राष्ट्रीयता अब कोड़ी-राष्ट्रीयता न रह गई बल्कि निराला ने राष्ट्रीयता की सांस्कृतिक व्याख्या की जिसके आलोक में पहले की सारी पूर्व-धारणाएं ढह गई। यह निराला का ही रचना-कौशल है जिसने नायिका को सुहागभरी बनाया जबकि राष्ट्रीय-परिपेक्ष्य स्वतंत्रता और क्रांति की मांग कर रहा था, फिर इस प्रकार का साहस निराला ही कर सकते हैं ।

ऐसा दावे के साथ तो नहीं कह सकता पर मेरे हिसाब से निराला-दृष्टि में 'सुहाग' शब्द किसी बंधन नहीं बल्कि स्वाधीनता और सामाजिक परिवर्तन का रूप है, ऐसा इसलिए भी क्योंकि जब निराला छंद ,भाषा आदि के बंधों को तोड़ रहे थे तब यह सुहाग के बंधन को क्यूँ जोड़ा? शायद निराला स्त्री और पुरुष दोनों को मुक्त करना चाहते थे क्योंकि दोनों अलग और अपूर्ण तथा असमर्थ थे। पूर्णता और समर्थता के लिए इन बेड़ियों को टूटना आवश्यक था और तोड़ा भी कहीं सुहागभरी के रूप में तो कहीं शिव रूप में अन्यथा स्वतंत्रता आन्दोलन स्त्री सहयोग के बिना अधुरा और अपूर्ण ही बना रह जाता

[अर्थ और अधिक स्पष्ट करने हेतु डॉ रामविलास शर्माजी के शब्द जो उन्होंने किसी अन्य प्रकरण के लिए प्रयोग किया था, लेते हुए - यहाँ सुहागभरी का अर्थ व्यापक मानव करुणा और क्रांति के आह्वान के सहयोग का है क्योंकि व्यापक करुणा के बिना क्रांतिकारीपन उच्छृंखलता और आतंक का पर्याय मात्र रह जाता है।]

निराला सजग नारी के प्रखर समर्थक रहें है यह बात उनकी इस कविता के माध्यम से स्पष्ट हो जाता है। जो उनकी समय पूर्व प्रगतिशीलता जो अन्य समकालीन कवियों में बहुत बाद में देखी गई। 'जूही की कली ' जो निराला की पहली कविता मानी जाती है उसी में यह स्पष्ट हो जाता है कि इसमें प्रगतिशीलता के तत्त्व मौजूद है और जिसके प्रमाण हेतु इसकी चर्चा प्रगतिशील विचारकों, चिंतकों, आलोचकों जैसे की नामवर सिंह, मुक्तिबोध एवं दिनकर के दृष्टिकोण से जहाँ तक संभव हो सके करने की कोशिश करेंगे ।

             #  कविता के अन्दर जो नायिका अथवा नारी है वह कहीं भी साहस की कमी से ग्रस्त या कमजोर नहीं दिखती

            #  नायिका कहीं भी मध्यकालीन दासता को स्वीकार करती नहीं दिखाई देती बल्कि जहाँ तक हो सके अपने अधिकारों के प्रति अत्यंत सजग भी है, जो एक प्रकार से                    नारी-जाति पर नवजागरण के प्रभाव को स्पष्ट करता है ।

            #  नायिका न तो पलायनवादी है न किसी अंकुश से ग्रस्त ।

            #  नायिका प्रेम, समर्पण, त्याग और समता जैसे मूल्यों से निर्मित है।

शक्ति -चेतना के कवि निराला का रचना- कौशल उनको सबसे समर्थ कवियों में इसीलिए ला खड़ा करता है क्योकि यही चेतना उनको धारा के विपरीत कविता को छंद से मुक्त करने की शक्ति प्रदान करता है तभी तो 'जूही की कली' महज उनकी पहली कविता ही नहीं वरण ऐसी रचना है जो पूर्व की काव्य-शैली से इतर मुक्त छंद शैली में लिखी गई है जिसकी यह विशेषता है कि इसमें विरामचिह्न, कोष्ठक  आदि प्रणालियों ने भी कविता का अंग बन एक अर्थ ग्रहण किया अब कविता  Art of reading  आधारित बन रही थी ।

कल्पना का अपूर्व समायोजन जिसमे उदात्त कार्य, उदात्त कथानक, उदात्त भाव एवं उदात्त चरित्र का प्रयोग किया गया । यहाँ उदात्त का प्रयोग हर एक के लिए किया गया है फिर चाहे वह कविता के अंतर्गत आये राष्ट्र, प्रकृति , नारी अथवा पुरुष हो।

प्रकृति प्रेम और साहचर्य भाव- प्रकृति और काव्य में गहरा अंतर-संबंध होता है । निराला की यह कविता अपने प्रकृति प्रेम और साहचर्य भाव के कारण भारतीय साहित्य के अंतर्गत छायावाद को विश्व साहित्य की श्रेणी में खड़ा करने में पूर्ण समर्थ है। पश्चिम के कवि जो मुख्य रूप से स्वछंद-वादी कहे जाते हैं, जिनमे वर्ड्सवर्थ और कोलरिज या उनके प्रेरणा-स्रोत रहे रूसो के काव्य को भी 'जूही की कली' अपने इस गुण के कारण प्रतिस्पर्धा देने में सक्षम है। ऐसा इसलिए भी क्योंकि यहाँ प्रकृति का प्रयोग संभवतः रीतिकवियों की तरह काम-भावना को भड़काने हेतु नहीं बल्कि नव्य-वेदांत और शैवा-द्वैतवादी प्रभाव से पूर्ण और प्रकृति को केवल मिथ्या नहीं मानते हुए परम तत्त्व के रूप में स्थापित करते हैं। मनुष्य की तुलना में प्रकृति के क्या अधिकार हैं इसको भी स्पष्ट किया गया है, तभी तो निराला-कृत  प्रकृति  इतनी खुबसूरत है की उसको मानव के रूप में देखना संभव है। कहीं-कहीं प्रकृति के मानवीकरण की प्रक्रिया में उसका नारी से भी सुन्दर स्वरुप संभव है। 

प्रकृति-प्रेम और साहचर्य का साहचर्य-संभूत-रस इतना निश्छल और वेगवान है कि राष्ट्रीय-सांस्कृतिक-प्रेम के रूप में उसका विस्तार अभूतपूर्व काव्यशैली को न केवल भाव-पक्ष तक ही सीमित रखता है वरण शिल्प के स्तर पर भी मानवीय अलंकार का प्रयोग जो प्रकृति ही नहीं भाव को भी मानव रूप में प्रस्तुत कर देता है । 

इस प्रकार अप्रस्तुत का प्रस्तुतीकरण कवि के रचना कौशल को दर्शाता है। कविता में अर्थालंकार का प्रयोग वांछनीय है क्योकि कविता के भाव काफी गहरे और जो सामान्य भाषा स्तर पर इतनी प्रखर नहीं हो पाती। सुप्तावस्था से जागरण या नवजागरण की यह कविता समाज की जड़ता को तोड़ती है और यह दर्शाने का प्रयत्न करती है कि किस प्रकार नवजागरण अपने निहित शक्तियों के माध्यम से समाज की प्राचीन रुढियों को तोड़ आगे बढ़ सकता है। जो हिंसा की अनिवार्यता को नकारते हुए अधिकारों चाहे वह स्त्री अधिकार हो अथवा वह समाज जो अपने अधिकारों के प्रति या तो अनभिग्य है या निरुत्साहित । यही "तमसो मा ज्योतिर्गमय" है और यही वह भौतिकवाद जो आशा-निराशा के द्वन्द से उपजता है एवं प्रगतिशील है। 

'जूही की कली' में आत्म-प्रसार की आकांक्षा दुनिया की चारदीवारी को तोड़, नए विज्ञान के संपर्क से ओत-प्रोत हो जाता है। उसके सामने संसार का विराट रूप सामने आ जाता है, नई सीमाएं, प्रकृति  और विराटताओं का बोध उसे आश्चर्यचकित कर देता है। इस कविता के माध्यम से निराला उन सभी युवा का प्रतिनिधित्व करते हैं जिनकी आँखे ज्ञान के इस आलोक से खुल गई है, खुलकर और भी चौड़ी भी हो गई है। वह परिवारिक सीमाओं से बाहर निकल समाज के कर्मक्षेत्र में आ खड़े हुए हैं। अनेक युवक समुद्र पार न करने की पुराणपंथी धारणा का खंडन कर शिक्षा के लिए विदेशों में निकल पड़े। आत्म-प्रसार की इसी आकांक्षा का टक्कर या पहला टक्कर इन  पुरानी रुढियों से ही हुआ । 
          
      "फिर क्या? पवन 
       उपवन-सुर-सरित गहन-गिरि-कानन 
       कुञ्ज-लता-पुञ्जो को पार कर 
       पहुँचा जहाँ उसने की केलि 
       कली-खिली साथ !"

--------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------समीक्षक  श्री अभिमन्यु आनंद से साभार 



* * * * *

 "हिंदी में 'जुही की कली' मेरी पहली रचना है।" ऐसा निराला ने स्वयं अपने प्रसिद्ध निबंध 'मेरे गीत और कला' में लिखा है। 'अपरा' में उन्होंनें स्वयं इसका रचना-काल 1916 दिया है। 'पंत जी और पल्लव' निराला का दूसरा प्रसिद्ध निबंध है, जिसमें उन्होंनें लिखा है - "जिस समय आचार्य पंडित महावीर प्रसाद द्विवेदी 'सरस्वती' के सम्पादक थे, 'जुही की कली' 'सरस्वती' में छपने के लिए मैनें उनकी सेवा में भेजी थी। उन्होंनें उसे वापस करते हुए पत्र में लिखा - आपके भाव अच्छे हैं, पर छन्द अच्छा नहीं है, इस छंद को बदल सकें, तो बदल लीजिए।" 'जुही की कली' का प्रथम प्रकाशन कलकत्ते से प्रकाशित होने वाले मासिक 'आर्दश' में 1922 में हुआ।

"जुही की कली" के तीन प्रारुप हमारे समक्ष है-पहला 'आर्दश' में प्रकाशित(1922) जो सबसे पुराना है; दूसरा, प्रथम 'अनामिका' (1923) में संकलित, जो मतवाला के अठ्ठारवें अंक में भी छपा था, वहीं से उद्धृत, और तीसरा, 'परिमल' (1929) में दिया गया, जो कि अंतिम है। रचना-काल, प्रकाशन और संकलन की दृष्टि से 'जुही की कली' के इस संक्षिप्त विवरण के बाद अब हमें इस रचना की काव्य-सौंदर्य पर विचार करना चाहिए। कोई रचना  अपने बल पर अपने रचियता को अमरत्व प्रदान करती है तो विशेष-महत्व कि अधिकारणी बनती है। इस दृष्टि से 'जुही की कली' भी विशेष-महत्व की अधिकरिणी बनी है--


1. यह हिंदी की एक कालजयी रचना मानी जाती है और इसके बारे में वे लोग भी जानते है जो साहित्य से ज्याद़ा संबंध नहीं रखते है। इस रचना की व्यापकता और प्रसिद्धि का कारण न केवल मुक्तछंद है,  बल्कि इसका  असली कारण उत्कृष्ठ कलाकृति होना है। मुक्त छंद तो इस कविता कि क्रांतिकारी विशेषता है।

2. यह रचना अपनी 'अंतर्वस्तु और स्थापत्य' दोंनों ही दृष्टियों से निराला काव्य कि ही नहीं, संपूर्ण आधुनिक कविता में अपनी एक विशिष्ट पहचान बनाती है।

3.  इस कविता का ढाँचा 'कथात्मक' है।  अतः यह एक कहानी की तरह आगे बढ़ती है। यह 'सुषुप्ति से लेकर,  जागरण तक' की अतिसुदंर यात्रा-कथा है।

यह कविता पाँच बन्दों में वर्णित है।  पहले बंद में जुही की कली लता-वृंद पर सोई है; दूसरे बंद में उसकी विरह- विधुर स्थिति के संकेत के साथ उसके परदेशी प्रिय-पवन का चित्रण है; तीसरे बंद में दूर-देश में पवन को अपनी प्रिया की याद आती है, जिससे वह सभी विघ्न-बाधाओं को पार करता हुआ उसके पास पहुँच जाता है; चौथे बंद में जुही की कली को जगाने का प्रयास करता है, लेकिन वह जाग नहीं पाती, पाँचवे यानि अंतिम बंद में वह जोरों से झकझोरनें पर जाग जाती है, फिर अपने प्रिय से रति-क्रीड़ा कर खिल उठती है। सोने से जगाने तक का यह एक बहुत ही छोटा प्रसंग है, जिसे अपेक्षित गहराई के साथ सौन्दर्यपूर्ण ढंग से निराला ने चित्रित किया हैं एवं एक 'उत्कृष्ट काव्य' की रचना की।


4. जुही की कली और मलयानिल को नायक-नायिका बनाकर उनकी स्थूल श्रृंगारिक क्रीड़ा का वर्णन कवि ने किया है। इस तरह यह कविता छायावादी 'अप्रस्तुत-विधान' का भी अच्छा उदाहरण है। निराला का सूर-काव्य से ही नहीं, पद्माकर जैसे कवियों कि कविता से भी गहरा लगाव था। ऐसी स्थिति में उनका श्रृंगार-वर्णन संदेह करने योग्य नहीं है।  कली का नायिका के रुप में वर्णन वास्तविक होते हुये भी पूर्णतः शास्त्रीय है।


5. उक्त कविता के लिये निराला स्वयं कहते है कि उन्होंनें 'जुही की कली का Personification (स्त्री-रुप में निर्वाचन) किया है। जुही की कली पर नायिकात्व का आरोप है, नायिका पर जुही की कली का नहीं। इस तरह जुही की कली प्रस्तुत है, और नायिका अप्रस्तुत, न कि नायिका प्रस्तुत और जुही की कली अप्रस्तुत। यह फर्क बहुत बड़ा फर्क है; क्योंकि इससे 'जुही की कली' एक श्रृंगारिक कविता- मानवीय श्रृंगार का वर्णन करने वाली- न होकर एक 'प्रकृति-कविता' बन जाती है।
6. कवि ने इस कविता में " प्रकृति का मानवीकरण किया है, मनुष्य का प्रकृतिकरण नहीं।" यहीं इस कविता कि एक 'प्रमुख पहचान' है, जिससे इसका संपूर्ण रुप एक नये अर्थ कि ओर उन्नमुख होने लगता है।

7. जुही की कली निश्चय ही एक 'प्रकृति-कविता' है। यह रचना अपने सौन्दर्य को प्रकाशित करते हुए, निराला और उनके युग दोंनों ही दृष्टियों से अत्यंत महत्वपूर्ण कृति है। निराला की यह प्रकृति-कविता इतना महत्व इसलिए रखती है क्योंकि मनुष्य को उस समय साहित्य का सर्वप्रमुख ही नहीं, कभी-कभी एक मात्र विषय माना जा रहा था। एक लम्बे समय से  'मानवीय चौखट में प्रकृति को बैठाने की बात की जा रही थी, प्रकृति-चौखट में मानवीय संवेदना को नहीं।'


8. निराला ने प्रकृति कर प्रति उपयोगितावादी नही, "सौन्दर्यात्मक दृष्टिकोण" अपनाया है,क्योंकि साहित्य अथवा कविता का संबंध सौन्दर्य से है, किसी प्रकार कि स्वार्थपरक उपयोगिता अथवा कृत्रिम सुधार से नहीं। प्रकृति-संवेदना कवि कि संवेदनशीलता की पहली पहचान है और प्रकृति के प्रति असंवेदनशील कवि, कवि नहीं हो सकता। आधुनिक काल में मुक्तिबोध ने प्रकृति-कविता नहीं लिखी, लेकिन प्रकृति उनकी संवेदना का इस तरह अंग थी कि वे उसके बिना कवि-रूप में न कुछ सोच सकते थे, न कुछ अनुभव कर सकते थे। "प्रकृति के प्रति संवेदनशीलता" प्रमाणित करने के लिए प्रकृति-कवि होना कतई आवश्यक नहीं है। मुक्तिबोध कि इस तरह की कविता को हम देख सकते है-
       बरगद की डाल एक

       मुहाने से आगे  फैल

       सड़क पर बाहरी
       लटकती है इस तरह-
       मानो कि आदमी के जनम के पहले से                    
       पृथ्वी की छाती पर
       जंगली मैमथ की सूँड सूघ रही हो......
                                                        -चाँद का मुहँ टेढ़ा है

इस तरह हम देखते है कि निराला और मुक्तिबोध का प्रकृति-चित्रण के प्रति भाव काफी अलग-अलग है, जिसमें 'जुही की कली' अपना अलग ही महत्व रखती है।


9. निराला की यह कविता देश में पैदा होने वाली नवीन 'स्वातन्त्रय-चेतना की  देन' है; रोमांटिक मुक्त कल्पना की, जैसे- रवीन्द्रनाथ का संपूर्ण काव्य है। निराला-काव्य में राष्ट्रीय-भावना में प्रकृति कई रूपों में दिखाई पड़ती है-" राष्ट्रीय जागरण, सांस्कृतिक जागरण और अतीत गौरव।" प्रकृति के माध्यम से राष्ट्रीय जागरण को कई रूपों में व्यक्त किया है-निराला ने पवन को सैनिक कि तथा कली को देश की आवाम कि संज्ञा दी है। वह बताते है कि सैनिक अपनी आवाम सेसे दूर रहकर उनकी रक्षा के लिये तत्पर भाव रखता है और देश कि आवाम  को जगाने का कार्य भी करता है, परंतु देश कि आवाम अर्थात् कली इतनी जल्दी नहीं खिलती है।


10. यह रचना भाषा, चित्र और ध्वनि से युक्त होते हुए भी अपने-आप में स्वतंत्र और अकृत्रिम प्रतित होती है। भाषा, भाव और छंद की स्वतंत्रता का आशय हैं ' स्वतंत्र मनोभाव'। इस तरह यह कविता 'स्वतंत्र मनोभाव' की अभिव्यक्ति है।

11. 'जुही की कली' स्पष्ट रुप से 'फूल' पर लिखी गई कविता है। फूलों से निराला का प्रेम बहुत गहरा रहा है। यह अनेक साक्ष्यों के द्वारा सिद्ध भी है। अपनी काव्य रचना के अंतिम दौर में तो फूलों के प्रति उनका प्यार और बढ़ गया था। चमेली पर उनका गीत है- 'फिर उपवन में खिली चमेली'। इसका अंतिम बंद अत्यंत मनमोहक है-

          अपराजिता, नयन की सुनियत,

          अपने    ही    यौवन  से    विव्रत,

          जुही, मालती  आदिक  सखियाँ
          हँसती,   करती    है     रँगरेली।  


हिंदी में फूलों का ऐसा अद्भुत आत्मा से भरा हुआ चित्र शायद ही कोई दूसरा कवि उतार पाता। यहाँ भी चमेली युवती ही है, अपने यौवन से विव्रत, जैसे जुही की कली यौवन की मदिरा पीकर मतवाली थी।

पं. नंददुलारे वाजपेयी ने निराला के 'पुष्प-प्रेम' को "कवि निराला" पुस्तक में वर्णित करते हुए कहा है,' प्रकृति सौन्दर्य के प्रति उनका आकर्षण सुना-सुनाय या पढा-पढाया नहीं था, वे उससे गहरे आत्मीय संबंधों में बँधे हुए थे।'


12. 'जुही की कली' से फूलों के प्रति निराला की जो आशनाई शुरू हुई, वह आशनाई कभी भी अपनी अंतिम परिणति पर नहीं पहूँची, ब्लकि सतत रूप से आगे बढ़ती रही। इसी कारण भी यह कविता अपना एक अनुपम महत्व प्रकाशित करती है। प्रस्तुत कविता में पवन और जुही की कली को नायक-नायिका के रूप में दिखाकर जो सौंदर्य-व्यापार और वातावरण उपस्थित किया गया है वह हमारा ध्यान सबसे अधिक आकर्षित करता है। शेफालिका, वन- बेला, राम की शक्ति पूजा जैसे अनेक उनके गीतों में जो 'सौंदर्य-भावना' लगातार विकसित होती चली गई है, उसका मूल 'जुही की कली' जैसी कविताएँ ही है। अतः 'सौन्दर्य- भावना की दृष्टि' से कविता पर विचार करना आवश्यक प्रतीत होता है।


13कवि जुही की कली का जिस 'तरूणी' के रूप में वर्णन एवं चित्रण कर रहा है, वह 'सुहाग-भरी' है, दूसरे वह कोमल ही नहीं 'अमल तनु-वाली' है।

14.                      "बासंती निशा थी;

                            विरह-विधुर-प्रिया-संग छोड

                            किसी दूर देश में था पवन 
                            जिसे कहते हैं मलयानिल।"


कविता के इस दूसरे बंद से "भौगोलिक भाव" स्पष्ट होते है।  'बासंती निशा थी' का आशय स्पष्ट है कि जुही बंगाल की है, वह भी बसंत में खिलने वाली। 'मलयानिल' भी कविता का संबंध बंगाल से दर्शाता है; यह दक्षिण दिशा से चलने वाली हवायें है जो केवल बंगाल में बहती है, हिंदी प्रदेशों में नहीं।


15. 'जुही की कली' के सौंदर्य वर्णन में 'परिस्थिति की अनुकूलता विशेष महत्व' रखती है। नायक, चाँदनी पूर्व अर्द्ध-रात्रि में प्रिया-संग-छोड़ किसी दूर देश में पड़ा हुआ है। फिर उसे प्रिया-मिलन के अनेक चित्र यादों में घेर लेते है; तब उसका मन आकुलतित हो उठता है और उसका सारा धैर्य टूट जाता है। अर्थात् इससे यह पता चलता है कि नायक में ऐसी आकुलता और धैर्य अर्द्ध-रात्रि के पश्चात् ही उत्पन्न होते है। अतः यहाँ का वर्णन अत्यंत 'सटीक और शास्त्रीय' है।

16. वर्षा की झड़ी तो सुनी गई थी, लेकिन 'झोकों की झड़ी' पहली बार। अतः इस प्रकार के प्रयोंगों से यह कविता 'नवीनता और ताज़गी' का पुट धारण करती है।

17. ' निर्दय उस नायक ... कपोल गोल' पंक्तियों को लेकर "जानकी बल्लभ शास्त्री" ने कहा है- " ऐसी सौन्दर्य दीप्त भाषा का प्रयोग आधुनिक हिंदी में हुआ ही नहीं।"  इस प्रकार इस कविता में प्रकृति के उपमानों कें द्वारा, कविता को जो गति प्राप्त हुई है वह इस कविता के "सौंदर्य-पक्ष" को अभिव्यक्त करती है।
                 
रचना-कौशल


भाव-पक्ष--


छंद, दोहे, चौपाई के विशेषज्ञ, तत्कालीन काव्यशास्त्री और अलोचको, निराला की रचना प्रक्रिया से सर्वथा अनभिज्ञ थे। इसलिए निराला की रचनाएँ उन्हें हैरत करती थी।  हिंदी साहित्य में निराला कि रचना-प्रक्रिया--


1. निराला की कविताएँ घिसीपिटी परिपाटियों, पिटीपिटाई रीतियों,रूढ़ियों, शिकजें में जकड़ी रचना और रचनाकार को मुक्त करने और करते रहने की दिशा में एक नवीन शुरूवात है। यह रचना -प्रक्रिया 'कला की मुक्ति' की ही एक प्रक्रिया है।

2. यह कविता 'ऐतिहासिक' पुट को धारण किये हुये, हिंदी साहित्य में नये ढंग, परिपाटी को जन्म देती है। संपूर्ण तरीके से पुराने ढाँचे को अस्वीकार कर, एक नया नज़रिया, नये ढंग से, नवीन परिपाटी के साथ, सभी के समक्ष एक "नवीनतम प्रस्तुती"  है; यह कविता।

3. इस कविता में 'प्रेम और मिलन' का जो भाव हम देखते है, वह एक शालीन, नैतिकतावादी प्रेम-रूप है, जिसे निराला ने  एक नवीन 'शालीनतम एंव स्वच्छ' आकार में चित्रित किया है।
4. निराला की इस कविता में उनकी रचना-प्रक्रिया के "संवेदनात्मक वैयक्तिक इतिहास" की विशिष्टता का परिचय मिलता है। इस विशिष्टता का एक पक्ष यह है कि उनकी रचना-प्रक्रिया में मुक्ति के लिए छटपटाहट मिलती है। इस तरह रचनाकार अपने आप को रचना से मुक्त करता है।

5. निराला की 'जुही की कली' कि अर्थ-सूक्ष्मता भी एक महत्वपूर्ण स्तर है जुही की कली' की प्रारंभिक पंक्तियों में, कविता का पहला शब्द 'विजन' अर्थ की सूक्ष्मता को दर्शाता है। 'विजन' की अर्थ-सूक्ष्मता में शील- संस्कृति की रक्षा, स्वाभिकता, मनोवैज्ञानिकता, कामशास्त्रीयता है। 'विजन' संपूर्ण कविता में दो दृश्यों को दर्शाता है। पहला दृश्य नायिका के 'स्वस्थ शयन' का है और दूसरा 'रतिक्रिया' का। इन दोंनों के लिये विजनता आवश्यक है।


6. वायु के स्पर्श से जुही की कली का चटखना, इस दृश्य को और भी कवियों ने अपने तरीके से सियाराम शरण गुत्त तक ने, लेकिन निराला की बात ही 'निराली' है
                                    

7. 'जुही की कली' के संपूर्ण वृत्तांत का सौंदर्य, वृत्तांत के सजीव और सचित्र वर्णन से उत्कृष्ट हुआ है। इसलिए निराला की कविताओं में प्रकृति भी काव्य बन गयी है।

कला- पक्ष

1. बिम्ब-योजना - 'जुही की कली' शीर्षक कविता ओंस के बिंदुओं, कली की पंखुड़ियों जैसे प्रकृति के छोटे-छोटे कणों को समेटें हुये विराट दृश्यों को प्रस्तुत करती है। कवि की यह दृष्टि जीवन-जगत की विविधता को अपने प्रकृति-बिम्बों के माध्यम से व्यक्त करती है।

2. प्रतीक - कविता में 'पवन' प्रेमी का प्रतीक है। कुछ अलोचक कविता में प्रयुक्त कली और मलय का आध्यात्मिक अर्थ भी निकालते है। यहाँ 'मलयानिल' पहले दक्षिण पर्वत से चलने वाली हवा के रूप में, फिर सैनिक के रूप में, फिर नायक के रूप में निराला ने प्रयुक्त किया है। ये 'मलयानिल' के प्रतीकार्य है।

3. मानवीकरण - 'जुही की कली' में निराला मानवीय रूपों, भावों और क्रियाओं को देखते है। कली स्त्री है- नवयौवन है, पवन पुरूष है- परदेशी है। यह मानवीय क्रिया- व्यापार नहीं होता तो कविता निष्प्राण और प्रभावहीन हो जाती। मानवीकरण की दृष्टि से यह कविता महत्वपूर्ण है।

4. मुक्त-छंद - छंद जहाँ श्रोताओं को सीमा के आनंद में भुला देती है, वहाँ मुक्त छंद उन्हें महासमुद्र के समान प्रतीत होता है। यह कविता के चित्र के भाव में मुक्ति की बात है; मूर्त के अमूर्तन की और इसका संबंध पराधीन जाति के 'मुक्ति- प्रयास' से है।
              
           अतः इस कविता में नियंत छंदों से मुक्ति; भावों और विचारों की नियत परिपाटी से मुक्ति; लय,ताल, संगीत के नियत पैटर्न से मुक्ति है और इस प्रकार निराला समग्र रूप  से कला की नियति से ही स्वयं को मुक्त करते है। निराला ही के शब्दों को लेकर कहें तो यह कविता " स्वतंत्रता की प्यास को प्रखतर करने वाली" है।

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संदर्भ-ग्रंथ-सूची-:
1. निराला कृति से साक्षात्कार- नंद किशोर नवल
2. 'निराला' का अलक्षित अर्थगौरव- पाण्डेय शशिभूषण 'शीताशुं'
3. निराला काव्य में प्रकृति - रेणुवाला
4. जुही कि कली (लेख) - अनिल कुमार सिन्हा

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-------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------प्रस्तुति : रोहित जैन साभार 

1 comments

Abhimanyu anand July 25, 2016 at 9:41 PM

हो तुम आसपास ?
जिसका है अहसास, है विश्वास !
यह एक तत्त्व है ,स्वतंत्र !
या क्षितिज-समरूप-यौगिक !

हो तुम वलयाकृति और मैं ? उभार !
वृत्त-परिधि पर इंदीवर ।

हो तुम आसपास ।
जिसका है अहसास, हो मेरा विश्वास ।
यह एक तत्त्व है ,स्वतंत्र !
या क्षितिज-समरूप-यौगिक !

तितली के रंगों में तुम ,रेखाओं में मैं साकार ,
सजल-नेत्र-अश्रुधार, यामिनी हर-श्रृंगार !

मेरे ये भाव जो योग्यता के अनुरूप ही तुच्छ हैं,होना भी चाहिए ! ऋणी रहा तब ही बेहतर भी है मेरे लिए क्योकि जबतक ऋण-मुक्ति का प्रयास करूँगा । इसमें वृद्धि ही होगी और स्नेह मिलता ही रहेगा ।
मेरे भाव का कोई शीर्षक इसलिए भी नहीं है क्योकि ये आपके स्नेह भाव से स्वतः बंधे हुए ही निकले हैं ।
कई बार कोशिश की कि आपके सामने मेरे मन के, आपके प्रति कृतज्ञ भाव को व्यक्त कर सकूँ । शायद ये कभी संभव हो सके । असल में मेरा आपके प्रति आदर भाव समर्पण को ही चुनता है शक्ति नहीं । ऐसा इसलिए भी कि, अगर आपके स्नेह-बंध ने बाँध न लिया होता तो मैं अपने छात्र जीवन ही नहीं जीवन के हर रूप में लगभग बिखर ही गया था ।
स्नेहाभिलाषी
अभिमन्यू आनंद