*** निर्गुण साहित्य : त्रि-आयामी आलोचना


ज इस पर बल देना बहुत ज़रूरी है कि किसी काल के साहित्य में कोई ऐसा परिवर्तन नहीं होता जो अतीत और भविष्य से पूर्णतः विच्छिन्न हो। रचनात्मक प्रवृत्तियों, चिन्ताधाराओं, सौन्दर्यबोधीय मूल्यों और साहित्य मूल्यों की विकासशील परम्परा में परिवर्तन और निरन्तरता का, द्वन्द्वात्मक गतिशील सम्बन्धा होता है। हर नया आन्दोलन अतीत से मुक्ति की बात करता हुआ भी नया होने के बावजूद इतना नया नहीं होता कि अतीत से उसका कोई सम्बन्ध ही न हो। साहित्येतिहास को ऐतिहासिक आलोचना से स्वतन्त्र एक बौद्धिक अनुशासन के रूप में विकसित करने के लिए यह आवश्यक है कि रचना, रचनात्मक प्रवृत्तियों और कलात्मक बोध के उदय तथा द्वन्द्वात्मक विकास को एक गतिशील प्रक्रिया के रूप में विवेचित किया जाए और इस विकास प्रक्रिया को प्रभावित करने वाले ऐतिहासिक यथार्थ से विकास प्रक्रिया के सम्बन्ध की व्याख्या भी की जाए। रचना की उत्पत्ति और उसकी वर्तमान सार्थकता दोनों पर विचार करना उसका सही मूल्यांकन करना है। वर्तमान की चेतना के परिप्रेक्ष्य में ही अतीत की सार्थकता की व्याख्या करके वर्तमान के लिए उसे उपयोगी और प्रासंगिक बनाया जा सकता है। इस विचार को ध्यान में रखा जाए तो विभिन्न आलोचकों ने अपने युग के सवालों के अनुरूप भक्तिकालीन साहित्य का पाठ प्रस्तुत किया है। भक्तिकाल के साहित्य का फलक इतना व्यापक है कि उसमें तत्कालीन तथा वर्तमान सामाजिक प्रश्नों का विस्तृत विवेचन किए जाने की अपार संभावनाएँ मौजूद हैं। हिन्दी साहित्य के इतिहासकारों व आलोचकों ने अपने-अपने तर्कों के आधार पर इस युग के साहित्य को पारिभाषित किया है किन्तु एक ही काल में विभिन्न प्रवृत्तियाँ इतनी सघनता से विद्यमान हैं कि कोई भी अध्ययन निर्विवाद स्वीकार्य नहीं हो सका है। अपने आलोच्य विषय पर आने से पूर्व यदि भक्तिकाल के उद्भव और विकास के बारे में विद्वानों के अध्ययन पर दृष्टि डालें तो हमें अपने विषय पर समझदारी विकसित करने में सहायता मिलेगी।

हालाँकि हिन्दी साहित्य के इतिहास लेखन की शुरूआत विदेशी विद्वानों के हाथों हुई परन्तु हिन्दी साहित्य के इतिहास को व्यवस्थित और वैज्ञानिक रूप देने वाले पहले विद्वान हैं आचार्य रामचन्द्र शुक्ल। भक्ति साहित्य उनका प्रिय विषय रहा है। उन्होंने भक्ति आन्दोलन के उद्भव के सम्बन्ध में लिखा है कि ‘‘देश में मुसलमानों का राज्य प्रतिष्ठित हो जाने पर हिन्दू जनता के हृदय में गौरव-गर्व और उत्साह के लिए वह अवकाश नहीं रह गया। उनके सामने ही उनके देव मंदिर गिराए जाते थे, देव-मूर्तियाँ तोड़ी जाती थीं और पूज्य पुरुषों का अपमान होता था और वे कुछ भी नहीं कर सकते थे। ऐसी दशा में अपनी वीरता के गीत न तो वे गा ही सकते थे और न बिना लज्जित हुए सुन ही सकते थे। आगे चलकर जब मुस्लिम साम्राज्य दूर तक स्थापित हो गया तब परस्पर लड़ने वाले स्वतन्त्र राज्य भी नहीं रह गए। इतने भारी राजनीतिक उलटपेफर के पीछे हिन्दू जनसमुदाय पर बहुत दिनों तक उदासी-सी छाई रही। अपने पौरुष से हताश जाति के लिए भगवान की शक्ति और करुणा की ओर ध्यान ले जाने के अतिरिक्त दूसरा मार्ग ही क्या था?’’

आचार्य शुक्ल के बाद आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने भक्ति आन्दोलन को परम्परा का विकास माना और उसके उद्भव की खोज दक्षिण भारत के भक्ति आन्दोलन में की। आचार्य शुक्ल की स्थापना का खंडन करते हुए वे लिखते हैं ‘‘यह बात अत्यंत उपहासास्पद है कि जब मुसलमान लोग उत्तर भारत के मन्दिर तोड़ रहे थे, तो उससे अपेक्षाकृत निरापद दक्षिण में भक्त लोगों ने भगवान की शरणागति की प्रार्थना की। मुसलमानों के अत्याचार के कारण यदि भक्ति की भावधारा को उमड़ना था तो पहले उसे सिन्ध में और फिर उत्तर भारत में प्रकट होना चाहिए था, पर वह हुई दक्षिण में।’’ आचार्य शुक्ल पर व्यंग्य करते हुए ‘हिन्दी साहित्य की भूमिका’ में उन्होंने लिखा, ‘‘दुर्भाग्यवश हिन्दी साहित्य के अध्ययन और लोक-चक्षु-गोचर करने का भार जिन विद्वानों ने अपने उपर लिया है, वे भी हिन्दी साहित्य का सम्बन्ध हिन्दू जाति के साथ ही अधिक बतलाते हैं और इस प्रकार अनजान आदमी को दो ढंग से सोचने का मौका देते हैं - एक यह कि हिन्दी साहित्य एक हतदर्प पराजित जाति की सम्पत्ति है इसलिए उसका महत्व उस जाति के राजनीतिक उत्थान-पतन के साथ अंगिक-भाव से सम्बद्ध है और दूसरा यह कि ऐसा ना भी हो तो वह एक निरन्तर पतनशील जाति की चिन्ताओं का मूर्त प्रतीक है, जो अपने आप में कोई विशेष महत्व नहीं रखता। मैं इन दोनों बातों का प्रतिवाद करता हूँ ... ऐसा करके मैं इस्लाम के महत्व को भूल नहीं रहा हूँ, लेकिन जोर देकर कहना चाहता हूँ कि इस्लाम नहीं आया होता तो भी इस साहित्य का बारह आना वैसा ही होता जैसा आज है।’’ द्विवेदी जी ने इसे ‘भारतीय चिन्ता का स्वाभाविक विकास’ माना है।

शुक्ल जी की भक्तिकाल के उदय से सम्बन्धित उपरोक्त स्थापना उनकी अन्तिम राय के रूप में नहीं है। इसलिए इस्लाम के आगमन को भक्ति साहित्य में ‘प्रभाव’ के रूप में लिया जाना चाहिए, प्रतिक्रिया के रूप में नहीं, जैसी कि स्वयं द्विवेदी जी ने सिफारिश की है। शुक्ल जी ने लिखा है ‘‘भक्ति का जो सोता दक्षिण की ओर से धीरे-धीरे उत्तर भारत की ओर पहले से ही आ रहा था, उसे राजनीतिक परिवर्तन के कारण शून्य पड़ते जनता के हृदय क्षेत्र में फैलने के लिए पूरा स्थान मिला। रामानुजाचार्य ने शास्त्रीय पद्धति से जिस सगुण भक्ति का निरूपण किया था, उसकी ओर जनता आकर्षित होती चली आ रही थी।’’ आगे वे लिखते हैं ‘‘भक्ति के आन्दोलन की जो लहर दक्षिण से आई उसी ने उत्तर भारत की परिस्थिति के अनुरूप हिन्दू-मुसलमान दोनों के लिए एक सामान्य भक्तिमार्ग की भी भावना कुछ लोगों में जगाई। हृदयपक्षशून्य सामान्य अंतस्साधना का मार्ग निकालने का प्रयत्न नाथपंथी कर चुके थे। ... पर रागात्मक तत्व से रहित साधना से ही मनुष्य की आत्मा तृप्त नहीं हो सकती। महाराष्ट्र देश के प्रसिद्ध भक्त नामदेव (सं. 1328-1408) ने हिन्दू-मुसलमान दोनों के लिए एक सामान्य भक्तिमार्ग का भी आभास दिया। उसके पीछे कबीरदास ने विशेष तत्परता के साथ एक व्यवस्थित रूप में यह मार्ग ‘निर्गुणपंथ’ के नाम से चलाया उत्तर के भक्ति आन्दोलन को वे उत्तर की परिस्थितियों के आलोक में देखते हैं परन्तु उनका विवेचन राजनीतिक-धार्मिक परिस्थितियों की चर्चा करके रह जाता है।

द्विवेदी जी की मान्यता है कि सिद्धों-नाथों की परंपरा ने कबीर आदि निर्गुण सन्तों की वैचारिक जमीन तैयार करने में मदद पहुँचाई तथा अपभ्रंश काव्य परम्परा, जिसने भक्तिकाल के विशाल लोक साहित्य की भूमिका तैयार की, शुक्ल जी ने इसकी चर्चा भिन्न रूप में की है। उनके अनुसार बौद्ध धर्म विकृत होकर वज्रयान सम्प्रदाय के रूप में देश के पूर्वी भागों में उस समय पैफला था। उनके बीच वामाचार अपनी सीमा लाँघ रहा था। स्त्रियों को लेकर मद्यपान के साथ अनेक वीभत्स विधान वज्रयानियों की साधना के प्रधान अंग थे। सिद्धि प्राप्ति के लिए किसी स्त्री का संभोग या सेवन आवश्यक था। इसके बाद शुक्ल जी नाथपंथ की चर्चा करते हैं, उनका मानना है कि गोरखनाथ के नाथपंथ का मूल भी वज्रयान शाखा थी। लेकिन वज्रयानियों के अश्लील और वीभत्स विधानों से योगियों की इस हिन्दू शाखा ने अपने को अलग रखा और गोरखनाथ ने अपना मार्ग अलग कर लिया। इस नाथ सम्प्रदाय में भी वज्रयानियों की तरह नीची और अशिक्षित श्रेणियों के लोग आए, जो अपनी अटपटी बानी ओर रहस्यदर्शिता के बल पर जनता पर धाक जमाते थे और शास्त्राज्ञ पंडितों को फटकारते थे। सिद्धों-नाथों की यही परम्परा आगे चलकर कुछ हद तक कबीर आदि सन्तों में विकसित हुई।

द्विवेदी जी के ‘भारतीय चिन्ता के स्वाभाविक विकास’ पर नजर डालना उचित होगा। वे अपनी पुस्तक ‘हिन्दी साहित्य की भूमिका’ में इसका विस्तृत विवेचन करते है और लिखते हैं कि ‘‘सातवीं शताब्दी में युक्त प्रान्त, बिहार, बंगाल, आसाम और नेपाल में बौद्ध धर्म काफी प्रबल था ... मुसलमानी आक्रमण के आरम्भिक युगों में भारतवर्ष से इस धर्म की एकदम समाप्ति नहीं हो गई थी, इन प्रदेशों के धर्ममत, विचारधारा और साहित्य पर इस धर्म ने जो प्रभाव छोड़ा है, वह अमिट है। लोग बौद्ध सन्यासियों का आदर-सत्कार करते थे और उनके ही ढंग पर अपने आपके विषय में, अपनी दुनिया के विषय में और लोक-परलोक के विषय में सोचने लगे थे। आठवीं-नवीं शताब्दी में बौद्ध महायान सम्प्रदाय लोकाकर्षण के रास्ते बड़ी तेजी से बढ़ने लगा। वह तन्त्र, मन्त्र, जादू, टोना, ध्यान-धारण आदि से लोगों को आकृष्ट करता रहा। ... जिन दिनों हिन्दी साहित्य का जन्म हो रहा था, उन दिनों भी बंगाल और मगध तथा उड़ीसा में बड़े-बड़े बौद्ध विहार विद्यमान थे, जो अपने मारण, मोहन, वशीकरण और उच्चाटन की विद्याओं से और नाना प्रकार के रहस्यपूर्ण तांत्रिक अनुष्ठानों से जन समुदाय पर अपना प्रभाव फैला रहे थे। आगे चलकर फिर महायान में भी कई टुकड़े हो गए। सबसे अन्तिम टुकड़े हैं वज्रयान और सहजयान, जो अपनी गाड़ी को सचमुच इतना मजबूत और सहज बना सके कि उनमें पांडित्य और कृच्छसाध्यता का अर्थात् कष्टपूर्ण व्रजनियम आदि का कोई अंग रहा ही नहीं। भारतीय बौद्ध सम्प्रदाय, सन् इस्वी के आरम्भ से ही लोकमत की प्रधानता स्वीकार करता गया, यहाँ तक कि अन्त में जाकर लोकमत में घुल-मिलकर लुप्त हो गया। हजार वर्ष से वे ज्ञानियों और पंडितों के उँचे आसन से नीचे उतरकर अपनी असली प्रतिष्ठा-भूमि लोकमत की ओर आने लगे। उसी की स्वाभाविक परिणति इस रूप में हुई। उसी स्वाभाविक परिणति का मूर्त प्रतीक हिन्दी साहित्य है। नवीं और दसवीं शताब्दियों में नेपाल की तराइयों में शैव और बौद्ध साधनाओं के सम्मिश्रण से नाथपंथी योगियों का एक नया सम्प्रदाय उठ खड़ा हुआ। यह सम्प्रदाय काल क्रम से हिन्दी भाषी जनसमुदाय को बहुत दूर तक प्रभावित कर सका था। कबीरदास, सूरदास और जायसी की रचनाओं से जान पड़ता है कि यह सम्प्रदाय उन दिनों बड़ा प्रभावशाली रहा होगा।

सम्मिश्रण की इस प्रक्रिया को भी थोड़ा समझने की आवश्यकता है। इस सन्दर्भ में द्विवेदी जी लिखते है ‘‘बौद्ध धर्म के लोप होने के बाद बहुत-सी जातियाँ ब्राह्मण धर्म के भीतर आ गईं इन जातियों के आने के कारण बहुत से व्रत, पूजा, पार्वण आदि इस धर्म में आ घुसे, जिनकी प्राचीन ग्रन्थों में कोई व्यवस्था नहीं थी। पुराणों से इस बात का समाधान किया गया था। ... इस प्रकार ग्यारहवीं-बारहवीं शताब्दी के पंडितों को लोक जीवन की ओर झुकने को बाध्य होना पड़ा था। इन सब बातों से सहज ही अनुमान किया जा सकता है कि उस युग का पांडित्य भी लोकजीवन की ओर झुकने लगा था। बौद्ध पंडित भी लोकमत की ओर नत हो चुके थे और स्मार्त पंडित भी उसी ओर झुके। परन्तु दोनों का झुकाव दो दिशाओं में हुआ। एक निकृष्ट कोटि के जादू, टोना, टोटका आदि की ओर झुके और दूसरे लोक जीवन के अकिंचित्कर निरर्थक आचार-व्यवहार की ओर। इस प्रकार स्मार्त और बौद्ध दोनों ही हिन्दी साहित्य के जन्मकाल के समय लोकमत का प्रधान्य स्वीकार कर चुके थे। इसी कारण द्विवेदी जी मानते हैं कि हिन्दी साहित्य के जन्मकाल के बहुत पहले अपभ्रंश या लोकभाषा में कविता होने लगी थी। दो प्रकार की भिन्न-भिन्न जातियों की दो चीजें अपभ्रंश से विकसित हुई हैं – (1) पश्चिमी अपभ्रंश से राजस्तुति, ऐहिकतामूलक श्रृंगारी काव्य, नीतिविषयक फुटकल रचनाएँ और लोकप्रचलित कथानक तथा (2) पूर्वी अपभ्रंश से निर्गुणियाँ सन्तों की शास्त्र निरपेक्ष उग्र विचारधारा, झाड-फटकार, अक्खड़पना, सहजशून्य की साधना, योग पद्धति और भक्तिमूलक रचनाएँ। यह और भी लक्ष्य करने की बात है कि यद्यपि वैष्णव मतवाद उत्तर भारत में दक्षिण की ओर से आया, पर इसमें भावावेशमूलक साधना पूर्वी प्रदेशों से आई। इस प्रकार हिन्दी साहित्य में दो भिन्न-भिन्न जाति की रचनाएँ दो भिन्न-भिन्न मूलों से आईं।

हिन्दी साहित्य पर इस्लाम के प्रभाव की चर्चा करते हुए द्विवेदी जी लिखते हैं। “योगियों का एक बहुत बड़ा सम्प्रदाय अवध, काशी, मगध और बंगाल में फैला हुआ था। ये लोग गृहस्थ थे और इनका पेशा जुलाहे और धुनिए का था। इनमें जो साधु हुआ करते, वे भिक्षावृत्ति पर निर्वाह करते थे। ब्राह्मण धर्म में इनका कोई स्थान न था। मुसलमानों के आने के बाद वे लोग धीरे-धीरे मुसलमान हो गए ... कबीर, दादू और जायसी ऐसे ही नाममात्रा के मुसलमान थे जिनके परिवार में योगियों की साधना पद्धति जीवित रूप से वर्तमान थी।“ यदि कबीर आदि निर्गुणमतवादी सन्तों की वाणी की बाहरी रूपरेखा पर विचार किया जाए तो मालूम होगा कि यह सम्पूर्णतः भारतीय है और बौद्ध धर्म के अन्तिम सिद्धों और नाथपंथी योगियों के पदादि से उसका सीधा सम्बन्ध है ... सहजयान और नाथपंथ के अधिकांश साधक तथाकथित नीची जातियों में उत्पन्न हुए थे, अतः उन्होंने इस अकारण नीच बनाने वाली प्रथा को दार्शनिक की तटस्थता के साथ नहीं देखा। कबीर की निर्गुणमतवादी साधकों की परम्परा में जो दादू, सुन्दरदास आदि भक्त हो गए हैं उन्होंने स्पष्ट ही नाथपंथी योगियों, विशेषकर आदिनाथ, मत्स्येन्द्रनाथ, गोरखनाथ तथा चैरासी सिद्धों, विशेषकर काणेरी, चैरंगी, हाडिफा आदि को अपने मत का आचार्य माना है। सहजयानी सिद्धों और नाथपंथी योगियों का अक्खड़पन कबीर में पूरी मात्रा में है और उसके साथ ही उनका स्वाभाविक फक्कड़पन मिल गया है।

मामूली भिन्नता के बावजूद शुक्ल जी और द्विवेदी जी के निष्कर्ष एक जैसे लगते है। लेकिन यह भिन्नता ऐसी है, जो दोनों आचार्यों को दो दिशाओं में ले जाती है और दोनों के लिए भक्ति साहित्य का धरातल दो रूपों में दिखाई पड़ता है। इसी भिन्नता के कारण शुक्ल जी को ‘‘शास्त्राज्ञ पंडितों को फटकारने’ वाले सिद्धों और नाथों की रचनाएँ ‘साम्प्रदायिक शिक्षा’ मात्रा लगती है और उनका ‘जीवन की स्वाभाविक अनुभूतियों और दशाओं से’ उन्हें कोई सम्बन्ध नहीं लगता। इसके विपरीत आचार्य द्विवेदी भक्ति आन्दोलन के इस मोड़ पर खड़े होकर इसे ‘भारतीय चिन्ता का स्वाभाविक विकास’ मानते हुए हिन्दी साहित्य के जन्मकाल की ‘दो भिन्न-भिन्न मूलों से’ उत्पन्न ‘दो भिन्न-भिन्न रचनाओं’ की परम्परा के विकास के रूप में पहचानने का आग्रह करते हैं। इन विद्वानों के अलावा डॉ. रामविलास शर्मा एक ऐसे आलोचक है जिन्होंने हिन्दी साहित्य का कोई इतिहास तो नहीं लिखा परन्तु भारतेन्दु, महावीर प्रसाद द्विवेदी, रामचन्द्र शुक्ल, प्रेमचन्द, निराला आदि लेखकों पर केन्द्रित जो महत्वपूर्ण पुस्तकें लिखीं तथा ‘परम्परा का मूल्यांकन’ जैसे जो दर्जनों लेख लिखे है उससे हिन्दी साहित्य के इतिहास का नया ढाँचा बनता है। आचार्य शुक्ल और आचार्य द्विवेदी के भक्ति आन्दोलन सम्बन्धी विवादों को अपनी दो पुस्तकों (1) आचार्य रामचन्द्र शुक्ल और हिन्दी आलोचना (1955) तथा (2) हिन्दी जाति का साहित्य (1986) में डॉ. शर्मा ने उठाया है। वे भक्ति साहित्य को सगुण और निर्गुण जैसे खानों में न बाँटकर, उसे एक नाम ‘सन्त साहित्य’ के नाम से पुकारते हैं। ‘परंपरा का मूल्याँकन’ में वे यह सवाल उठाते हैं कि संत साहित्य का सामाजिक आधार क्या है? इसका जवाब वे इस प्रकार देते हैं ‘‘इसका सामाजिक आधार जुलाहों, कारीगरों, किसानों और व्यापारियों का भौतिक जीवन है। सन्त साहित्य भारतीय संस्कृति की आकस्मिक धारा नहीं है। यह देश की विशेष सामाजिक परिस्थितियों में उत्पन्न हुई थी।’’ इसे विस्तार से समझाते हुए वे आगे लिखते हैं ‘‘भारतीय जीवन की जिस परिस्थिति से सन्त साहित्य का घनिष्ठ सम्बन्ध है, वह है, सामन्ती शक्ति का ह्रास, सामन्ती ढाँचे का कमजोर पड़ना। कुछ लोगों का विचार है कि अँग्रेजी राज कायम होने से पहले भारत में सामन्तवाद पूरी शक्ति से जमा हुआ था। यह धारणा इतिहास के तथ्यों के विपरीत है। 15वीं, 16वीं और 17वीं सदी में यहाँ व्यापार की बड़ी-बड़ी मंडियाँ कायम होती हैं, पचीसों नगर व्यापार और सांस्कृतिक आदान-प्रदान के केन्द्र बनकर उठ खड़े होते हैं। लोहे और कपास का सामान काफी बड़े पैमाने पर तैयार किया जाता हैं। सैकड़ों वर्षों के बाद सामाजिक जीवन की धुरी गाँव से घूम कर नगर की ओर आ जाती है। सामाजिक जीवन की बागडोर सामन्तों के हाथ में ही नहीं रहती, व्यापारी भी उसमें हाथ बँटाने लगते हैं। राज्यसत्ता सामन्तों के हाथ में रहती है लेकिन बहुत से सामन्त भी अपनी शक्ति के लिए व्यापारियों का सहारा लेते हैं। गोला-बारूद का प्रयोग, एक से सिक्कों का काफी बड़े प्रदेशों में चलन, जागीरदारों का एक जागीर से दूसरी जगह भेजे जाना, सड़कों और नहरों का बनना, समाचार भेजने के लिए हलकारों की व्यवस्था, किसानों से सीधे राज्य कर लेने की व्यवस्था आदि ऐसी बातें थीं जिनसे गाँवों का अलगाव कम हुआ और सामन्ती शक्ति कमजोर हुई। भारतीय समाज में यह परिवर्तन उसकी अपनी ही शक्तियों से हो रहा था।

डॉ. रामविलास शर्मा के अध्ययन का धरातल सामाजिक-आर्थिक पक्षों पर खड़ा है जबकि शुक्ल जी और द्विवेदी जी सामाजिक-धार्मिक-राजनीतिक आधार पर ही आलोच्यकाल का अध्ययन करते दिखाई पड़ते हैं। आर्थिक पक्ष इनके यहाँ गौण है। भक्तिकाल के उद्भव में कौन सी भौतिक परिस्थितियाँ कारण बनी यह तथ्य हिन्दी साहित्य के अध्येता के लिए तब तक पहेली बना रहेगा जब तक वह मध्यकालीन आर्थिक इतिहास के भीतर न प्रवेश करे। यह ध्यान रखने की बात है कि डॉ. रामविलास शर्मा 1955 में भक्ति आन्दोलन के सामाजिक आधारों पर लिख रहे थे, उस समय तक मध्यकालीन भारत के सामाजिक-आर्थिक इतिहास की रूपरेखा उतनी स्पष्ट नहीं थी। मध्यकालीन इतिहास की आर्थिक रूपरेखा की स्पष्टता का यह अभाव आचार्य शुक्ल और द्विवेदी जी के सामने भी था। फिर भी रामविलास शर्मा भक्ति आन्दोलन की सामाजिक-आर्थिक पृष्ठभूमि की छानबीन उस समय कर रहे थे, जब इतिहासकारों में इस सन्दर्भ में चुप्पी थी।

उपरोक्त तीनों विद्वानों के अध्ययन से भक्ति आन्दोलन की व्याख्या के तीन आयाम खुलते हैं।



डॉ. पूरनचंद से साभार

1 comments

ASHOK BAJAJ October 15, 2010 at 11:03 PM

बेहतरीन पोस्ट .आभार !
महाष्टमी की बधाई .